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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४ ] [आचाराग-सूत्रम् विनयवादियों के ३२ मेद इस प्रकार हैं:-देव, राजा, यति, शाति, स्थविर, अधम, माता, पिता इन पाठ का मन, वचन, काया और दान से (चार प्रकार का) विनय करने से विनय के ३२ विकला हो जाते हैं। विनयवादी केवल विनय से ही मोक्ष मानते हैं। यह मान्यता एकान्तवाद के कारण मिथ्या है। यद्यपि विनय परम्परा से मोक्ष का कारण है और विनय ही धर्म का मूल है तदपि विनय के अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप भी मोक्ष के कारण होते हैं । केवल विनय को ही मोक्ष का कारण मानना युक्ति-संगत नहीं है क्योंकि अन्य कारण भी उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार क्रिया, प्रक्रिया, अशान और विनयवाद का प्रासंगिक दिग्दर्शन कराया गया है। 'एवमेगेसिंणो णायं भव' ऐसा कहकर सूत्रकार यह बता रहे हैं कि किन्हीं जीवों को तो संशा ( आत्मज्ञान ) नहीं होती और किन्हीं को होती है। इसका अर्थ यह है कि जो प्राणी अभी मोहावृत्त हैं, और जो विकासोन्मुख नहीं हैं उन्हें अपने सम्बन्ध में विचार तक नहीं होता कि "मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा? मेरी आत्मा पुनर्जन्म करती है या शरीर के साथ नष्ट हो जाती है ?" विकासोन्मुख प्राणी को सहज ही प्रश्न होते हैं कि विश्व का और आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? प्रात्मा के जन्म-मरण का कारण क्या है ? यह जिज्ञासा उत्पन्न होने पर पूर्वजन्म की स्थिति जानने की सहज प्रेरणा मिलती है और भविष्य काविचार प्राता है। भविष्य का विचार आते ही वर्तमान जीवन की शुद्धि पर लक्ष्य जाता है। यही विकासमार्ग में स्थिरता का कारण बनता है। सामान्यतः कर्मावृत्त प्राणियों को प्रात्म-ज्ञान नहीं होता, यह कहने के पश्चात् जिन जीवों को यह विशिष्ट संज्ञा ( आत्म-ज्ञान ) होती है उनका वर्णन करने के लिए सूत्रकार कहते हैं किः से जं पुण जाणेजा सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं अंतिए वा सोचा तंजहा-पुरस्थिमाअोवा दिसामोअागो अहमंसि जाव अण्णयरीश्रो दिसाम्रो अणुदिसायो वा अागो अहमंसि । एवमेगेसि रणायं भवइ-अस्थि मे पाया उववाइए, जो इमानो दिसाम्रो अणुदिसायो वा अणुसंचरह, सव्वाश्रो दिसाश्रो अणुदिसायो ( जो भागो अणुसंचरइ ) सोऽहं ॥४॥ संस्कृतच्छाया--स यः पुनर्जानीयात् सह सन्मत्या ( स्वमत्या ) परव्याकरणेण, अन्येषामन्तिके वा श्रुत्वा तद्यथा—पूर्वस्या वा दिश आगतोऽहमस्मि यावदन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगतोऽहमस्मि । एवमेकेषां ज्ञातं भवति-अस्ति ममात्मा औपपातिकः यः अस्या दिशोऽनुदिशो वा अनुसञ्चरति, सर्वस्या दिशोऽनुदिशः ( य आगतोऽनुसञ्चरति ) सोऽहं ॥ ४ ॥ १ ज णायं । २ अणुसंसरइ । ३ सव्वाओ अणुदिसायो, सोऽहं । . For Private And Personal For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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