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[ आचारान-सूत्रम्
तदनन्तर दोनों भागों में प्रजा की उत्पत्ति हुई। इस तरह पृथ्वी, अग्नि, जल, आकाश, समुद्र, पर्वत, नदी
दि की सृष्टि हुई।
कई लोग इस सृष्टि की रचना का क्रम इस प्रकार बताते हैं:
श्रासीदिदं
तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । सर्वतः ॥ १ ॥
प्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव
तस्मिन्नेकावी भूते
नष्टस्थावरजंगमे ।
प्रनष्टोरगराक्षसे ॥२॥
नष्टामन रे चैव केवलं गह्वराभूते महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तस्य तत्र शयानस्य नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् ||४|| तस्मिन्पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातर: सृष्टाः ||५||
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अर्थात् —जगत्-रचना के पहिले संसार शून्य था । समुद्ररूप बना हुआ था। स्थावर और जंगम देवता, मनुष्य, नाग और राक्षस आदि का नाश था । केवल गह्वर (पोलार ) के आकार का, भूतों रहित था । ऐसे शून्य में अचिन्त्य आत्मा विभु (ईश्वर) सोया हुआ तप करता था। उस सोये हुए ईश्वर की नाभि से एक कम उत्पन्न हुआ। वह कमल प्रभात के सूर्य के समान था तथा स्वर्ण की कर्णिका वाला था । उस कमल से दण्ड धारण करने वाले, यज्ञोपवीत पहिने हुए भगवान् ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन ब्रह्मा ने जगन्माता बनायीं। उनसे लोक उत्पन्न हुआ ।
इस तरह लोक की आदि और रचना के विषय में विभिन्न कल्पनाएँ की गई हैं। उक्त सभी वादी लोक की आदि मानते हैं ।
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इलो - कई वादी लोक को अनादि मानते हैं । सांख्य भी लोक को अनादि ही कहते हैं । जो सत् है वह उत्पन्न ही नहीं होता । यह सृष्टि-प्रवाह अनादिकालीन है । यह सृष्टि किसने बनायी ? यह प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होना चाहिए क्योंकि जो सत् है वह सदा सत् रहता है उसे उत्पन्न ही क्या होना है और जो असत् है वह उत्पन्न नहीं हो सकता । यह लोक सत् है अतएव यह अनादि ही है । इसकी दि ( पूर्वावस्था) नहीं प्रतीत होती अतएव श्रादिरहित है ।
सपज्जवसिए लोए- कई प्रवादी कहते हैं कि यह लोक सान्त है । प्रलय के समय सभी वस्तुओं का विनाश होता है । प्रलय काल में सृष्टि का सर्वथा नाश हो जाता है अतएव लोक सान्त है ।
पज्जवसिए लोए - कई वादी कहते हैं कि यह लोक पर्यवसित है। इस लोक का सर्वथा नाश कभी नहीं होता । जो वस्तु सत् है उसका श्रात्यन्तिक विनाश कदापि नहीं हो सकता। वह किसी न किसी रूप (पर्याय) में अवश्य बनी ही रहेगी। वे कहते हैं "न कदाचिदनीदृशं जगत्" अर्थात् यह संसार
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