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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विमोक्ष नाम अष्टम अध्ययन -प्रथमोद्देशकः सप्तम महापरिज्ञा अध्ययन विच्छिन्न हो गया अतएव छठे धूत अध्ययन के साथ ही इसका सम्बन्ध समझना चाहिए । धूत अध्ययन में गौरवत्रिक का, शरीर का, उपकरणों का और कर्म का धुनन करने का कहा गया है तथा निस्संगता का प्रतिपादन किया गया है । निस्संग विहारी साधक कोझिविध परीषह और उपसगों को सहन करना होता है । मारणान्तिक उपसर्ग होने पर भी कायरता न लाकर मेरु के समान निश्चल होकर अन्तिम दम तक साधना के मार्ग में आगे प्रगति करते रहने की प्रेरणा करने के उद्देश्य से यह विमोक्ष अध्ययन कहा गया है। विमोक्ष का अर्थ परित्याग है । नियुक्तिकार ने विमोक्ष का प्रतिपादन करते हुए इस प्रकार कहा है कम्मयदव्वेहि समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सा बंधो नायब्बो तस्स विश्रीगो भव मुक्खा ॥ अर्थात्-जीव का कर्म-द्रव्यों के साथ जो संयोग होता है वह बन्ध है । उस बन्ध का छूट जाना मोक्ष है । बन्धन से छूटने का नाम मोक्ष है । इससे मोक्ष, बन्धपूर्वक होता है यह सूचित होता है। जिसका बन्धन नहीं उसका मोक्ष कैसे हो सकता है ? जो बंधता है वही छूटता है। अतएव मोक्ष का स्वरूप बताने के पहिले नियुक्तिकार ने बन्ध का कथन किया है और बन्ध के क्षय को विमोक्ष कहा है। बन्ध-क्षय को मोक्ष बतलाकर नियुक्तिकार ने अन्यवादियों द्वारा माने हुए दीप निर्वाण तुल्य मोक्ष का निषेध किया है। नियक्तिकार ने मोक्ष का स्वरूप बतलाकर यह भी दिखाया है कि जो इस प्रकार के मोक्ष को प्राप्त करता है वह भक्त-परिज्ञा, इङ्गितमरण और पादपोपगमन रूप तीन प्रकार के मरण में से किसी भी मरण से सदा के लिए अजर-अमर हो जाता है। कार्य में कारण का उपचार करने से भक्तपरिज्ञादि मरण भी विमोक्ष कहा जा सकता है। नियक्तिकार के इस कथन से विमोक्ष का अर्थ परित्याग समझना चाहिए। प्रश्न होता है कि साधक दीक्षा अङ्गीकार करते समय बाह्य-पदार्थों का त्याग कर देता है इसके पश्चात् और क्या उसे छोड़ना रह जाता है ? इसका समाधान यह है कि बाह्य पदार्थों को त्यागने के बाद भी कुसंस्कारों को मिटाने और वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए और भी कई बातों का त्याग करना पड़ता है। तिपय बातों का उल्लेख तो धूत अध्ययन में किया गया है अब अन्य उपयोगी त्याग के लिए सूत्रकार सूचन करते हैं। इस अध्ययन के प्रथम द्देशक में कुसंग-परित्याग का वर्णन किया गया है। साधु अथवा गृहस्थ के जीवन पर संगति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । संगति का जीवन के निर्माण में बहुत महत्त्व पूर्ण स्थान है । संगति नन्दन वन के समान सुखदायिनी और किंपाकफल के समान दुखदाथिनी भी हो For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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