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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन पञ्चम उद्देशक ] प्रायः विश्व का प्रत्येक प्राणी मृत्यु से डरता है। सैकड़ों, हजारों और लाखों व्यक्तियों को अपनी भुजाओं से कंपा देने वाला वीर योद्धा भी मृत्यु के नाम से धूज उठता है। संसार का दुखी से दुखी व्यक्ति भी जीना पसन्द करता है और मृत्यु से डरता है। इसका कारण यह है कि मनुष्य या अन्य प्राणी यह समझ बैठे हैं कि उन्हें जिस चीज की चाह है वह इस जीवन के रहते-रहते ही मिलने वाली है। उस चीज की प्राप्ति की आशा में वे सब दुख सहकर भी जीना चाहते हैं। जब तक उनकी आशा पूर्ण नहीं होती तब तक वे मृत्यु से भेंट करना नहीं चाहते । परन्तु मृत्यु कब इस बात का विचार करती है कि यह व्यक्ति मुझे चाहता है या नहीं ? वह तो बिना बुलाये ही आने वाले अतिथि के समान है। वही व्यक्ति मृत्यु से भयभीत नहीं होता जिसे किसी तरह की आशा और कामना नहीं होती। सञ्चा मुनि शरीर को संयम का साधन समझता है । वह उसे कभी अपनी चीज नहीं मानता। जब तक उससे संयम का साधन होता है तब तक वह अनासक्त होकर आहारादि से उसका निर्वाह करता है और जब वह समझ लेता है कि अब यह साधन काम देने लायक नहीं है तो उसे छोड़ देता है। उसे शरीर पर ममता नहीं होती। उसे अपने आत्मस्वरूप में ममता होती है इसलिए अपनी मूल वस्तु की रक्षा के लिए वह बाह्य शरीर का भी बलिदान करने को तत्पर रहता है । वह प्राणों की बाजी लगा देता है पर अपने चारित्र में दोष नहीं लगा सकता । शरीर पर से जब ममता हट जाती है तब सच्ची श्राध्यात्मिकता जागृत होती है । ऐसे आध्यात्मिक वीर को मृत्यु का भय नहीं हो सकता । मृत्यु का समय आने पर वह काष्ट की तरह निश्चल रहकर सब दुखों को सहन कर लेता है और जब तक देह और आत्मा भिन्न २ नहीं हो जाते तब तक दृढ़तापूर्वक प्रसन्नता के साथ मृत्यु का स्वागत करता है। ऐसा करते हुए वह कर्मों को धुन डालता है और मृत्युञ्जय बन जाता है। यही धूत अध्ययन का सार है । इति षष्ठमध्ययनम् । इति षष्ठमध्ययनम् - - For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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