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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२] [अाचाराङ्ग-सूत्रम् अकेला स्वभाव भी कार्य का कारण नहीं हो सकता । क्योंकि काल नियति आदि भी कारण देखे जाते हैं। बीज में अंकुर उत्पन्न करने का स्वभाव होने पर भी अन्य पृथ्वी जल आदि सामग्रियों के विना वह उग नहीं सकता इससे मालूम होता है कि स्वभाव के अतिरिक्त भी और कारण है। ___ इसी तरह ईश्वर भी कार्य का कर्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह अमूर्त होने के कारण क्रिया रहित है जै ले आकाश । ईश्वर, वीतराग और कृतकृत्य होता है अतएव वह इस विषम संसार की रचना के प्रपञ्च में नहीं पड़ सकता । यदि ईश्वर रागी और अकृतकृत्य है तो वह हम लोगों के समान ही होने से ईश्वर नहीं कहा जा सकता है। इसलिए ईश्वर को का मानना असंगत है। इसी तरह आत्माद्वैतवाद भी युक्तिसंगत नहीं है। हमें जड़ और चेतन का विभाग प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है जो घट-पटादि पदार्थ हमें दिखाई देते हैं वे काल्पनिक नहीं है क्योंकि उनसे उस प्रकार की अर्थक्रिया होती है । तब उन पदों का अपलाप कैसे किया जा सकता है? आत्माद्वैत मानने पर सुख, दुख, पुण्य, पाप, धर्म, कर्म आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती है। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त वाद एकान्त वाद होने से मिथ्या हैं। यही वाद परस्पर मिलकर सम्यग्वाद बन जाते हैं । उक्त पाँचों वादों का समन्वय ही सच्चा कार्यों का कारण है । यह क्रिया वादियों का अधिकार हुआ। प्रक्रियावादियों के ८४ भेद इस प्रकार होते हैं । उनके मत से जीव, अजीव, पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात पदार्थ स्व-पर के भेद से और काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव ईश्वर और आत्मा इन छः अपेक्षाओं से विचारे जाने पर ८७ विकल्प होते हैं जैसे: (१) जीव स्वतः नहीं है काल से। (२) जीव परतः नहीं है काल से। ये काल की अपेक्षा दो भेद हुए । इसी तरह यहच्छा आदि की अपेक्षा से दो भेदः यो जीव पदार्थ सम्बन्धी १२ विकल्प हुए । इसी तरह अजीव के भी बारह विकल्प हुए । यो सात पदार्थों के ८४ विकल्प हुए । अक्रियावादी 'नास्तिक' है । ये जीव आदि के प्रभाव के प्रतिपादक हैं। __ नियति आदि का स्वरूप पहले वताया जा चुका है । यदृच्छा का अर्थ है अकस्मात् अतर्कित वस्तु की प्राप्ति । जैसे कौए पर ताल के फल का गिरना । न तो कौआ जानता है कि मुझ पर तालफल गिरेगा और न तालफल का यह अभिप्राय है कि मैं कौए पर गिरूँ । इस प्रकार विना अमिप्राय पूर्वक अकस्मात् जो घटना घटती है वह यदृच्छा है। इसका अभिप्राय यह है कि संसार के सब कार्य आकस्मिक हैं, वुद्धिपूर्वक नहीं। अक्रियावादी आत्मा के अभाव के प्ररूपक हैं। इनका निराकरण प्रात्मा की सिद्धि की जा चुकने से स्वयं हो ही जाता है। अशानवादियों के ६७ मेद इस प्रकार होते हैं । जीव आदि नव पदार्थ सत् , असत्, सदसत्, प्रवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात भङ्गों के द्वारा जाने नहीं जा सकते अथवा जान लेने पर भी इनके जानने का कोई प्रयोजन नहीं है । अर्थात् जीव सत् है यह कौन For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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