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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन पश्चम उद्देशक ] [ ङ है । उसमें स्त्री या पुरुष का धनी या निर्धन का, रंक या राव का, सबल या निर्बल का भेद बाधक नहीं हो सकता | धर्म के द्वार संसार के सब प्राणियों के लिए खुले हैं। विवेकी मुनि पक्षपात से रहित होकर सब जीवों को यथायोग्य धर्मामृत का दान करे। मुनि उपदेश के बदले में किसी चीज की कामना नहीं करता । वह केवल दया और उपकार से प्रेरित होकर निष्काम भाव से उपदेश देता है । सूत्रकार ने “विभए" पद के द्वारा यह बताया है कि मुनि, धर्म के विभागों का प्रतिपादन करे । इसका अभिप्राय यह है कि सब व्यक्तियों की पात्रता और योग्यता एकसी नहीं होती। सबका सामर्थ्य और समझ-शक्ति एकसी नहीं होती । अतः जिस व्यक्ति की जैसी भूमिका है, जो जिस प्रकार के उपदेश के योग्य है, जिसमें जिस प्रकार के उपदेश को पचाने और अंगीकार करने की शक्ति है उसे उसी प्रकार के धर्म का कथन करे । जिस प्रकार वैद्य रोगी का निदान करने के पश्चात् उसे योग्य औषधि देता है इसी प्रकार कुशल उपदेशक सामने वाले की पात्रता को देखकर तदनुकूल उपदेश देता है । इसलिए सूत्रकार ने धर्म के विभिन्न विभागों का उपदेश देने का कहा है। नागार्जुनीय वाचना में ऐसा पाठ भेद है - जे खलु समणे बहुस्सुए बज्भागमे आहरण हे उकुस ले धम्मक हालद्धिसम्पन्न खेतं कालं पुरिसं समाज केऽयं पुरिसे कं वा दरिस एमभिसम्पन्नो एवंगुणजाइए पभू धम्मस्स श्राधवित्तए । जो श्रमण बहुश्रुत और आगमों का ज्ञाता, दृष्टान्त एवं हेतुों में निपुण, उपदेशलब्धिसम्पन्न, क्षेत्र, काल, पुरुष आदि को समझने वाला, “यह कौन पुरुष है किस मत का मानने वाला है" आदि को जान लेने वाला है वही धर्मोपदेश देने का समर्थ अधिकारी है । धर्म का स्वरूप बड़े सुन्दर ढंग से सूत्रकार ने प्रदर्शित किया है। धर्म किसी मजहब, पन्थ, बाह्याचार या क्रियाकाण्डों का नाम नहीं है अपितु अहिंसा, शान्ति, क्षमा, मार्दव, सरलता, त्याग, अपरिग्रहत्व, पवित्रता आदि ही धर्म है। केवल बाह्य कर्मकाण्डों को और अपने २ पन्थों को ही धर्म समझ लेने की संकुचितता का त्याग करना चाहिए। मिथ्या आडम्बर, अन्धश्रद्धा, रूढि और ग्रह के कारण धर्म का असली रूप छिप-सा गया है। अतः धर्म के प्रति दुनिया के एक बहुत बड़े वर्ग की अश्रद्धा होती जा रही है। वस्तुतः सत्यधर्म के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रहा जा सकता है इसलिए धर्म की श्रवश्यकता का कोई भी विवेकी व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता। रूढि और अन्धश्रद्धामय धर्म के प्रति उपेक्षा हो तो कोई अचरज नहीं । सूत्रकार ने धर्म का जो स्वरूप बताया है वही सत्य है, सनातन है, हितकर है और मुक्तिप्रदाता है | अहिंसा, त्याग, सरलता, कोमलता, क्षमा, पवित्रता और अपरिग्रहमय धर्म के प्रचार से ही सुख-शान्ति का आस्वादन किया जा सकता है। इस उदार एवं व्यापक धर्म से ही दुनिया की शान्ति का अन्त आ सकता है। इस धर्मोपदेश से वैरवृत्ति और लोलुप मनोवृत्ति की समाप्ति हो सकती है और दुनिया में सच्ची शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है । इस प्रकार के धर्म का उपदेश - चाहे साधु हो या गृहस्थ- प्रत्येक जिज्ञासु व्यक्ति को दिया जा सकता है। संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों को इस उपदेशामृत का पान कराना मुनि साधक का कर्त्तव्य है। मुनि साधक विवेकपूर्वक और विचारपूर्वक आगम मर्यादा का उल्लंघन न करता हुआ उपदेश प्रदान करे। ऐसा करने से वह आत्मकल्याण के साथ जगत्-कल्याण का साधन कर सकता है । gas भिक्खू धम्म माइक्खमाणे नो प्रत्ताणं श्रासाइजा, नो परं साइजा नो अन्नाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई साइज्जा से अणासायए For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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