SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् कई प्राचार्य भाव द्वीप की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-भावद्वीप सम्यक्त्व है। द्वीप को प्राप्त करके प्राणी आश्वासन पाते हैं इसी तरह सम्यक्त्व की प्राप्ति से संसार परीत हो जाता है अतएव मुमुक्षु प्राणी सम्यक्त्व की प्राप्ति से आश्वासन पाते हैं। यह सम्यक्त्व औपशमिक क्षायोपशमिक आदि रूप से तो सन्दीन भावद्वीप है और क्षायिक समकित असन्दीन भाव द्वीप है। "दीवे” इस प्राकृत शब्द का संस्कृतरूप दीप भी होता है। इसलिए परीषहों में अविचल रहने वाले साधक को दीप की उपमा भी सुघटित होती है। जिस प्रकार दीप पदार्थों को प्रकट करने में निमित्तभूत होता है इसी तरह ऐसा साधक अन्य प्राणियों को हेय उपादेय का तत्त्व समझाता है। दीप स्वयं प्रकाश रूप होता है और अन्य को प्रकाशित करता है इसी तरह ऐसा साधक स्वयं परीषहों और उपसर्गों से विचलित नहीं होता और अन्य को भी अपने उपदेश द्वारा विचलित नहीं होने देता है। दीप का अर्थ प्रकाश दीप समझना चाहिए । सूर्य, चन्द्र, मणि आदि असन्दीन दीप हैं और विद्युत्, उल्का श्रादि सन्दीन दीप हैं । यहाँ सूर्य-चन्द्रादि असन्दीन दीप की उपमा समझनी चाहिए। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा जगत् का उपकार करते हैं अतएव वे जगत् के लिए आश्वासनरूप हैं इसी तरह ऐसा गुणविशिष्ट साधक भी अन्य साधकों के लिए आश्वासनरूप होता है। अथवा ज्ञान ही भावदीप है । श्रुतज्ञानादि सन्दीन भावदीप है और केवलज्ञान असन्दीन भावदीप है। इसे प्राप्त कर प्राणी अवश्यमेव आश्वासन पाते हैं। परीषहों में अविचल रहने वाला साधक उक्त कारणों से असन्दीन द्वीप या दीप तुल्य है। अब सूत्रकार यह प्ररूपणा करते हैं कि तीर्थंकर-भाषित जैन धर्म भी द्वीप तुल्य है। जिस प्रकार द्वीप समुद्र में नौका या जहाज आदि के भङ्ग हो जाने पर अनेक प्राणियों के लिए शरण रूप होता है और यों भी अनेक जीवों को आश्रय देता है इसलिए वह आश्वासनरूप है इसी तरह यह जैनधर्म भी संसार में डूबते हुए अनेक जीवों को आश्वासन देने वाला है, उनके लिए त्राण और शरणरूप होता है। इसका अवलम्बन लेकर अनन्त प्राणी संसार से पार हुए हैं। जिस प्रकार द्वीप जलादि से व्याप्त नहीं होता है-समुद्र के ज्वारभाटे का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता है इसी तरह यह तीर्थंकर-भाषित धर्म, कष, ताप, छेद और निर्घटना (ताड़न) रूप परीक्षा से परीक्षित सत्य स्वर्ण है। इस पर अन्य तीर्थियों के कुर्तकों का प्रभाव नहीं पड़ सकता है। जिस प्रकार कसौटी पर कसने से, अग्नि में तपाने से, काटने से और घड़ने से स्वर्ण की परीक्षा होती है इसमें उत्तीर्ण होने से वह खरा स्वर्ण कहा जाता है इसी तरह जैनधर्म विविध दृष्टिबिन्दुओं से परीक्षा करने पर भी सत्य ही है । यह धर्म नैसर्गिक और विश्वव्यापी है । जैसे द्वीप अनेक संतप्त प्राणियों को आश्वासन देता है इसी तरह जिनभाषित धर्म भी इतना ही आश्वासन देने वाला है। वह पीड़ित, पतित और दलितों को भी आश्रय देता है। धर्म की यह उदारता और व्यापकंता धर्मिष्ठ कहाने वाले व्यक्तियों के लिए विचारणीय है। इस आर्यभाषित जैनधर्म के आराधक कैसे होते हैं यह सूत्रकार फरमाते हैं कि इस धर्म का अनुष्ठान करने वाले साधक भोगलालसा का सर्वथा त्याग करते हैं और किसी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं। वे सर्वजनों के प्रियपात्र होते हैं । ऐसे मर्यादा में रहने वाले पण्डित साधक इस आर्य प्ररूपित धर्म का सम्यग् पालन करते हैं यह कहकर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि जितनी वासनाएँ मन्द होंगी उतनी ही अहिंसा जीवन में उतरती जायगी । अहिंसा-विश्वबन्धुत्व ही धर्म का फल है । अहिंसक साधक ही जैनधर्म के सच्चे आराधक हैं। ऐसे साधक ही पण्डित कहे गये हैं। ... . For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy