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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन द्वितीयोदेशक ] [४६३ हो अथवा दुर्गन्ध वाला हो उसमें रागद्वेष न करते हुए उसका उपयोग करे । साथ ही एकाकी अवस्था में जंगली पशुओं द्वारा कोई उपद्रव हो तो उसे धैर्य पूर्वक सहन कर लेना चाहिए । ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र के प्रारम्भ में सूत्रकार स्वार्पण की भावना का निर्देश करते हैं। सूत्रकार फरमाते हैं कि तीर्थक्कर देव का यह फरमान है कि आज्ञा से धर्म का पालन करना चाहिए । इस कथन में गम्भीर आशय है । साधक दुनिया में प्रत्येक धर्म की भिन्न भिन्न मान्यताओं, व्यक्तियों के भिन्न २ अभिप्रायों, विभिन्न मतों, गच्छों और मागों को देखकर असमंजस में पड़ जाता है । वह निर्णय नहीं कर पाता कि कौन सच्चा और कौन झूठा है । वह शंकाओं और विकल्पों से घिर जाता है। विकल्पों के कारण उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। दुनिया का प्रत्येक कथित धर्म यह दावा करता है कि उसका मान्य पथ ही श्रेष्ठ है । उसके मान्य भागम ही सच्चे हैं। दुनिया में जितने आगम हैं वे सब परस्पर विरोधी हैं। एक पूर्व की ओर जाता है एक पश्चिम की ओर । तब साधक गड़बड़ में पड़ जाता है। किसी ने कहा भी है: तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाँ महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ अर्थात-तर्क अस्थिर है, शास्त्र भिन्न भिन्न हैं, कोई ऐसा मुनि नहीं जिसके वचन प्रमाणभूत हों। धर्म का तत्त्व अंधेरे में है अतएव उसी मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर बहुत लोग चलते हों अथवा बड़े लोग चलते हो। उपर्युक्त कथन, कहने वाले की विवेक-बुद्धि के अभाव को सूचित करता है। जो व्यक्ति विवेकशील है वह सत्य-असत्य की भिन्नता कर सकता है। वह अनेक परीक्षाओं द्वारा सत्य का विवेक कर सकता है। जब व्यावहारिक भलाई-बुराई का निर्णय अपने अनुभव से हो सकता है तो धार्मिक बुराई भलाई की पहचान क्यों नहीं हो सकती ? तर्क के लिए यह कहा गया है कि वह अस्थिर है। लेकिन तर्क वहीं तक अस्थिर है जब तक उसका लक्ष्य निश्चित न हो । लक्ष्य के निश्चित हो जाने पर तर्क उसमें सहायक होता है। तर्क का लक्ष्य क्या है ? उसे कहाँ पहुँच कर स्थिर हो जाना चाहिए ? वस्तुतः तर्क का लक्ष्य वीतराग और सर्वज्ञ के तत्त्व होने चाहिए। उन तत्त्वों को बुद्धिगम्य बनाने में ही तर्क की सार्थकता है। साधना और अनुभव के द्वारा वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित तत्त्वों का निश्चय हो सकता है। वीतराग देव ने अनेकान्त दृष्टिविन्दु से वस्तु स्वरूप का उदारतापूर्ण निरीक्षण किया है अतएव उनके वचन-उनकी आज्ञा, उनके प्ररूपित आगम यथार्थ तत्त्र के प्रतिपादक हैं और सत्य-पथ के प्रदर्शक हैं। इसलिए सूत्रकार इस सूत्र में वीतराग की श्राज्ञा पर श्रद्धान रखने का उपदेश करते हैं और तदनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा करते हैं । विकल्पों और बुद्धि के तर्क-वितर्क में न फंसकर वीतराग की प्राज्ञा के प्रति स्वार्पण कर देने का मार्ग साधक के लिए अति सरल मार्ग है। बुद्धि के जञ्जाल में न पड़कर जो व्यक्ति इस श्रद्धा के साथ-कि जिनेश्वर देव अन्यथा कहने वाले नहीं हैं-वे सत्य ही कहते हैं-वीतराग की श्राज्ञा के प्रति अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं वे भावना प्रधान साधक अपना ध्येय सिद्ध कर लेते हैं। ज्ञानी पुरुष अपने सत्य अनुभव के आधार पर ही उपदेश फरमाते हैं। इसलिए ऐसे सत्पुरुषों की आज्ञा साधक के लिए परम अवलम्बन बन सकती है यह निस्संदेह है। ऐसे पुरुषों की आज्ञा की अधीनता में कुछ खोना नहीं पड़ता वरन् सर्वस्व प्राप्त होता है । श्राज्ञा की आराधकता आने पर साधक पुष्प के समान पापभार से लघुभूत हो जाता है । गीता में भी श्री कृष्ण ने अर्जन से यही कहा है कि For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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