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पष्ठ अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[४६१
अर्थात्-छद्मस्थ साधु पांच कारणों से उत्पन्न उपसों को सहन करते हैं, क्षमाभाव रखते हैं, क्रोध नहीं करते हैं वे समझते हैं कि उपसर्ग करने वाला व्यक्ति क्रोधरूपी यक्ष से ग्रस्त हैं १ यह उन्माद प्राप्त है-पागल है २ यह अहंकारी है ३ मेरे कर्म इस तरह उदय में आने वाले थे सो आये हैं जिससे यह पुरुष मुझे निन्दित वचन कहता है, मुझे बांधता है, संताप देता है, ताडन करता है ४ मैं यदि इन उपसों को समभाव से सहन करूँगा तो मेरे कर्मों की एकान्त निर्जरा होगी ५ इन पांच कारणों से छद्मस्थ साधु उपसर्ग सहन करते हैं । केवली भी उपर्युक्त पांच कारणों से ही उपसर्ग सहन करते हैं वे यह सोचते हैं कि मैं समभाव से उपसर्ग सहन करूँगा तो बहुत से छद्मस्थ श्रमण-निर्ग्रन्थ मेरे उदाहरण को सामने रखकर आये हुए परीषह और उपसर्गों को समभाव से सहन करेंगे।
इस आगम-वाक्य पर पूरा विचार करना चाहिए । साधक को यदि कोई आक्रोश-ताडन कर तो यह विचारना चाहिए कि यह पुरुष क्रोधरूपी पिशाच का शिकार हो रहा है अतएव यह अज्ञानी दयापात्र है । इस पर मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए। अगर मैं क्रोध करता हूँ तो मैं भी इसकी श्रेणी में सम्मिलित हो जाता हूँ। यह विचार कर समभाव से साधु उपसर्ग एवं परीषह सहन करे ।
निन्दा या स्तुति, लाभ या अलाभ, सुख या दुख, मान या अपमान, इन दोनों स्थितियों में समभाव रखना यह अति कठिन काम है । लेकिन कठिन समझ कर छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। आखिर इस स्थिति पर पहुँचने से ही मुक्ति है । इस कठिन कार्य को सतत साधना एवं पुरुषार्थ से सरल बनाना चाहिए इसीलिए सूत्रकार यह कहते हैं कि यह कार्य कठिन है इसलिए इसके लिए विशेष सावधान रहना चाहिए। अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसगों में समभाव प्राप्त करना चाहिए। आपत्ति को पार कर लेना इतना कठिन नहीं जितना प्रलोभन–अनुकूल उपसर्ग-को पार करना कठिन है । प्रबल प्रलोभनों के आने पर भी श्रात्म-लक्षी साधक साधना से विचलित नहीं होता है। ऐसा ही साधक अपने साध्य की सिद्धि सांगोपांग कर सकता है । जिसने समभाव-योग की साधना की है वह साधक तो किसी भी आपत्ति को आपत्ति गिनता ही नहीं है। इसका कारण यह है कि वह प्रकृति के अबाधित नियमों का ज्ञाता होता है । वह जानता है कि अगर मेरे कर्म इसी तरह के हैं तो मुझे इसी तरह इनका फल भोगना पड़ेगा। चाहे मैं खुशी से सहन करूँ चाहे रोते रोते-मुझे सहन जरूर करना पड़ेगा । वह विचार होने से वह परीषह-उपसगों से घबराता नहीं है। दुनियाँ उसकी निन्दा करती है तो वह उसकी परवाह नहीं करता क्योंकि लोकैषणा से वह दूर रहता है। वह तो श्रात्मा का लक्ष्य रखकर ही कार्य करता है न कि लोक बाह्यलोक का । अतएव वह परीषहों और उपसर्गों के आने पर ग्लानि नहीं लाता है और उन्हें शुद्ध श्रद्धा के साथ सहन करता है।
जो व्यक्ति परीषहों को सहन करते हैं, निष्किञ्चन हैं वे ही निर्ग्रन्थ भाव-नग्न कहे गये हैं। जो साधना का मार्ग अङ्गीकार किया है उसे विघ्न बाधाओं से डरकर छोड़ देना कायरता है । उत्तम पुरुष कार्य को प्रारम्भ करके बाधाओं के डर से उसे नहीं छोड़ते हैं । कहा भी है
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति । जिस साधक ने समभ.पूर्वक आसक्ति का त्याग किया है वह साधक परीषह और उपसर्गों से भयभीत होकर साधना का मार्ग नहीं त्याग सकता है। वह अपनी वृत्तियों को इधर उधर नहीं दौड़ने देता है। वह पूर्वाध्यासों के सामने दृढ़ता से टिका रहता है। ऐसी दृढ़ता वाला साधक ही साधना को सांगोपांग सफल कर सकता है।
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