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षष्ठ अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
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अचेल ( वस्त्रादि में अपरिग्रही ) हो संयम में उत्साहयुक्त रहकर परिमित आहार लेकर सहज तपश्चरण करता रहे ।
विवेचन-पूर्वसूत्र में प्रमत्त साधु के पतन का वर्णन किया गया है । अब इस सूत्र में अप्रमत्त अनगार की सम्यग् रूप से संयम की साधना होती है यह बताते हैं। सूत्रकार यह फरमाते हैं कि जो साधक प्रव्रज्या अङ्गीकार करते समय से ही जागृत रहते हैं वे ही अन्त तक संयम का पालन करके संसारसमुद्र से पार होते हैं। जो साधक विशुद्ध परिणाम रखते हुए वस्त्रपात्रादि उपकरणों को स्वीकार करके धर्मकरण में सावधान रहते हैं, परीषहों को सहन करते हैं वे सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म का पालन करते हैं । जो साधक भोगों में लीन नहीं होता है, भोगों की इच्छा तक नहीं करता है वह संयम में दृढ़ रहता है । कामविकार को जीते बिना संयम साध्य नहीं है । यह समझ कर जो साधक भोगवासना की इच्छा का क्षय करता है वह साधना में स्थिर रहकर निरासक्ति को अपने जीवन में उतारता है।
सभी दुखों का मूल आसक्ति है । आसक्ति को छोड़कर निरासक्ति प्राप्त करनी चाहिए । ज्यों-ज्यों आसक्ति जाती है त्यों-त्यों दुख हटता जाता है और सुख प्रकट हो जाता है। जो आसक्ति के अनिष्ट परिणाम को जानकर उससे दूर रहता है वही साधक सच्चा संयमी और महामुनि है यह कहकर सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि जैनदर्शन गुण की पूजा में मानता है। वह व्यक्ति-पूजा को महत्व नहीं देता है । वह वेश को, बाह्य क्रिया-काण्ड को महत्व नहीं देता है। जो साधक जितने अंश में निरासक्त रहता है और गुणों की श्राराधना करता है वह उतना ही पूज्य है और महत्वशाली है। इसका अर्थ कोई यह न समझले कि क्रिया अनावश्यक है । क्रिया की अनुपयोगिता समझ कर कोई क्रिया-शून्य बनने की मूर्खता न कर बैठे इसलिए सूत्रकार यहाँ चार रचनात्मक उपाय बताते हैं जिनसे त्याग की आराधना होती है। वे चार उपाय ये हैं:
(१) एकान्त भावना-साधक को यह भावना करनी चाहिए कि संसार में मेरा कोई नहीं है। मैं अकेला हूँ । इस प्रकार एकान्त भावना से साधक का मोह क्षीण होता है। स्वजनों और कुटुम्बियों के प्रति मोह-सम्बन्ध के संस्कार जागृत नहीं हो सकते हैं। इससे साधक को साधना के मार्ग में प्रबल पुरुषार्थ के लिए प्रेरणा मिलती है। साधक को यह अत्मनिर्भरता आ जाती है कि मैं ही मेरा उद्धार-कर्ता हूँ। मोह-सम्बन्ध के क्षय के लिए और आत्मनिर्भरता के लिए साधक को एकत्व भावना का चिन्तन करना चाहिए। यह प्रथम रचनात्मक कार्य है जो साधक को साधना में दृढ़ करता है।
(२) उपयोगमय जीवन-साधक की प्रत्येक क्रिया ध्येय-युक्त होनी चाहिए। साधक का ध्येय मोक्ष प्राप्ति का है । जो क्रिया मोक्षमार्ग की साधिका हो वही क्रिया साधक करता है । अर्थात्-साधक मोक्षमार्ग के अनुकूल क्रियाएँ ही करता है। जो क्रिया मोक्षमार्ग में बाधक है ऐसी कोई क्रिया वह नहीं करता । एकान्त मोक्षाभिलाषा से ही उसकी प्रत्येक क्रिया होनी चाहिए । साधक अपनी क्रियाओं में सदा उपयोगशील होता है। जो साधक उपयोगपूर्वक क्रिया करता है वह साधना में दृढ़ बना रहता है। उपयोग ही धर्म है । पापक्रिया का कारण अनुपयोग दशा है । उसका त्याग कर उपयोगमय जीवन बिताना चाहिए।
(३) वैराग्य भावना-साधक को वैराग्यभाव धारण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि उसे विरक्त-अनासक्त होना चाहिए। किसी भी पदार्थ में या सम्बन्ध में उसे राग-स्थापन न करना
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