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षष्ठ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
[४५५
इस श्लोक में वीतराग, जिन और संयत को वसु तथा सरागी स्थविर और श्रावक को अनुवसु कहा गया है । इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधना का मार्ग त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के साधकों के लिए खुला हुआ है। “आगारधम्मे" और "अणगारधम्मे" का भी यही प्रयोजन है।
सूत्रकार यहाँ यह कह रहे हैं कि पहले जागृत होकर त्याग करने पर भी जब विचारों और परिणामों में शिथिलता आ जाती है तो साधक अपने त्याग के उद्देश्य को भूलकर पूर्व आवेशों के वश में होकर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं । कोटिभव दुर्लभ मनुष्य-जन्म को प्राप्त कर, संसार रूपी समुद्र को तैरने के लिए अलभ्य सम्यक्त्व रूपी नाव को पाकर और मोक्षरूपी तरु के लिए बीजभूत चारित्र को प्राप्त करके, मोह के उदय से कार्याकार्य का विचार न करके, भोगों में चित्तवृत्ति को लगाकर इन्द्रियों की लोलुपता से और अनेक भव के अभ्यास से विषयों को मधुर जानकर कई साधक साधना के मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। पतन के दो मुख्य कारण हैं-(१) त्याग के उद्देश्य का विस्मरण और (२) पूर्वाध्यासों के वेग को जीतने की दृढ़ता का अभाव । साधक यह भूल जाता है कि मैंने किस आशय से त्याग किया है और मैंने क्या त्याग किया है।
__ त्याग का आशय भूला दिया जाने से साधक त्याग का अर्थ पदार्थ का त्याग करने लगता है और अन्दर ही अन्दर पदार्थ के प्रति मोह करने लगता है। वास्तविक त्याग तो पदार्थ या विषयों के प्रति मोह को दूर करना है। यह भूलकर जब साधक अन्दर ही अन्दर पदार्थों और विषयों से मोह करने लगता है तो वह मोह दम्भ और आडम्बर का सेवन कराता है। आखिर परिणाम यह होता है कि वह भोग में आसक्त हो जाता है और भोगों में सुख है यह पूर्वसंस्कार प्रबल हो जाते हैं । दोनों कारणों से वह संयम के उपकरण वस्त्र, पात्र, कम्बल रजोहरण श्रादि छोड़कर पतित हो जाता है । संयम के मार्ग में आनेवाले परीषहों को नहीं सह सकने के कारण और मोह से परवश होकर मोक्षमार्ग का त्याग कर देते हैं। भोगों में
आसक्ति के कारण वह साधक त्यागमार्ग छोड़ देता है लेकिन उसकी गति "उभयतो भ्रष्टः" वाली होती है। त्यागमार्ग छोड़ देने पर उसकी आसक्ति और प्रबल हो जाती है और वह भोगों में तलालीन हो जाता है। इसका परिणाम यह पाता है कि अति श्रासक्ति के कारण वह न तो भोग का आनन्द उठा सकता है क्योंकि अतृप्ति बनी रहती है और त्यागी तो वह रहता ही नहीं है । इसके लिए कुण्डरीक का उदाहरण दृष्टि के सामने रखना चाहिए। कुण्डरीक ने प्रथम प्रव्रज्या अंगीकार की और मोह के उदय से और पूर्व भोगे हुए कामभोगों के स्मरण से वह एकदम विचलित हो गया और अपने भाई पुण्डरीक नृप के पास आया और उससे पुनः राज्य और भोगसामग्री की याचना की । पुण्डरीक ने अपने भाई को स्थिर करने का प्रयत्न किया लेकिन कुण्डरीक अत्यन्त मोह में फंस चुका था । आखिर पुण्डरीक ने त्यागमार्ग स्वीकारा
और कुण्डरीक को राज्य सौंपा। पुनः राज्य और भोग की सामग्री प्राप्त करके कुण्डरीक इतना गृद्ध हो गया कि एक अहोरात्रि में ही कामवासना से अतृप्त होकर नरक का अतिथि बना । यह औदारिक देह आगे पीछे नष्ट होने वाली है इसका विचार न करके प्राणी भोगों में आसक्ति करता है और शरीर-भेद को प्राप्त करता है । भोगों में अत्यन्त आसक्ति आयुष्य को क्षीण करने वाली है। सूत्रकार ने “अपरिमाणाए भेदे” (अनन्तकाल के लिए भेद हो जाता है ) यह कहके यह सूचित किया है कि ऐसे भोगों में गृद्ध बने हुए प्राणी इस नर-देह को छोड़कर पुनः अनन्तकाल तक इस देह को नहीं पाते हैं । वे अन्य नीच गतियों में भटकते रहते हैं । अनन्तकाल तक वे सुरदुर्लभ मानवदेह से वञ्चित रहते हैं । यहाँ तक कि पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति उन्हें अनन्तकाल तक नहीं होती। आगे सूत्रकार यह प्रतिपादन करते हैं कि भोग भोगने से कभी शांत नहीं होते । ज्यों ज्यों भोग भोगे जाते हैं त्यो त्यों भोगेच्छा बढ़ती जाती है । भोग नहीं भोगे जाते
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