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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्ययन द्वितीयोदेशक ] [ ४५३ व्युत्सृज्य, अनुपूर्वेण अनधिसहमानाः परीषहान् दुरधिसहनीयान् कामान्, ममायमाणस्स इदानीं मुहूर्तेण वा अपरिमाणाय भेदः एवं सः अन्तरायिकैः कामैः केवलकैः अवतणिश्चिते । शब्दार्थ — लोगं - संसार को । आउरं=आतुर । श्रायाए- जानकर । पुव्वसंजोगं-पूर्वसंयोग को । चत्ता = त्याग कर । उवसमं - उपशम । हित्वा = धारण कर । बंभचेरं ब्रह्मचर्य में । वसित्ता = रहकर | वसु वा = साधु अथवा | अणुवसु वा = गृहस्थ श्रावक । श्रहा तहा = यथातथ्य | धम्मं=धर्म को जानकर | अहेगे - तदनन्तर कोई । कुसीला - धर्मपालन में अशक्त, कुशील । तमचाइ= उस धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं । दुरहियास = असह्य । परीसह = परीषहों को । अणुपुव्वेण= क्रमशः । अणहियासेमाणे = नहीं सहन करते हुए । वत्थं = वस्त्र | पडिग्गह = पात्र | कंबलं = कम्बल | पायपुञ्छणं = रजोहरण को । विउसिजा = छोड़कर । कामे = भोगों की | ममायमाणस्स = इच्छा करके स्वीकारते हुए के । इयाणि = अभी । मुहुत्तेण वा अथवा थोड़े समय बाद । अपरिमाणा ए=अनन्तकाल के लिए। भेए शरीर का भेद हो जाता है ( पंचेन्द्रियत्व का भेद ) एवं = इस प्रकार | से=वह भोगाभिलाषी । अंतराएहिं विघ्न से भरपूर । श्राकेवलिएहि = अतृप्तिकारक | कामेहि= कामभोग के कारण । एते = ये | अवइन्ना = संसार में भटकते रहते हैं । T भावार्थ – इस संसार को दुखमय जानकर, माता-पिता आदि स्नेहीजनों के पूर्वसंयोग ( मोहमय सम्बन्ध ) को छोड़कर, उपशम भाव धारण करके, ब्रह्मचर्य पूर्वक रहते हुए कितनेक (निरागी या सरागी) साधक मोह का उदय होने से सदाचार को छोड़ देते हैं और असह्य परीषों को अनुक्रम से सहने में असमर्थ होते हुए वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि मुनिलिंग का त्याग करके भ्रष्ट होकर कामभोगों में अत्यन्त आसक्त होते हैं | परन्तु थोड़े ही समय में इस क्षणभंगुर शरीर से अलग होने पर ऐसे कामियों को अनन्तकाल तक यह पंचेन्द्रियत्वादि सामग्री मिलना कठिन हो जाता है । इस तरह वे बेचारे दुखमय कामभोगों से अतृप्त रहकर ससार में भटकते रहने वाले हैं । विवेचन—शास्त्रकार फरमाते हैं कि केवल साधना के मार्ग में जुड़ जाने से काम नहीं समाप्त हो जाता है । साधना के स्वीकार के बाद पल-पल पर वृत्तियों और विकल्पों से सावधान रहना चाहिए । बहुत से साधक यह बात बिल्कुल भूल जाते हैं। साधना के पहिले उनमें जो तत्त्व - जिज्ञासा, पुरुषार्थवृत्ति और जागरूकता होती है वह धीरे-धीरे कम होती जाती है। जैसे-जैसे साधक शिथिल होता है त्योंथों पूर्व सम्बन्ध और पूर्व के विषयों की वासना का जहर उस पर असर करता जाता है । ऐसे समय साधक जागृत होने के बजाय विशेष प्रमादी बन जाता है और वह आन्तरिक पतन का मार्ग खोल देता है और ऊपर से संयम और त्याग का आडम्बर प्रदर्शित करता है । ऐसा साधक भले ही अन्य की दृष्टि में त्यागी और वीर समझा जाता हो लेकिन वास्तविक दृष्टि से वह कायर और पामर बनता जाता है और भयंकर पतन के मुख में गिर जाता है इसलिए साधना का मार्ग स्वीकार करने पर दृढ़ता का बख्तर धारण करना चाहिए। वृत्तियों के द्वन्द्व युद्ध में दृढ़ता रूपी कवच की अनिवार्य आवश्यकता है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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