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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५० ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् विवेचन – जब सच्चा वीर व पराक्रमी साधक त्यागमार्ग स्वीकार करने के लिए तय्यार होता है तब उसकी सच्ची कसौटी होती है । सांसारिक सम्बन्ध से बंधे हुए उसके माता, पिता, स्त्री, पुत्र आदि विलाप करते हुए, करुण क्रन्दन करते हुए उसे इस प्रकार कहते हैं कि - हम तेरी इच्छानुसार चलते हैं तुझ से इतना प्रेम करते हैं तू हम सबको छिटका कर क्यों दीक्षा अङ्गीकार करता है ? जो व्यक्ति अपने माता-पिता को छोड़ देता है— उनके कथन की श्रवगणना करता है वह सच्चा मुनि भी नहीं हो सकता है और संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता। इसलिए तुम गृहस्थाश्रम में ही रहकर धर्मध्यान करो और दीक्षा श्रङ्गीकार मत करो। हमने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया है अब तुम हमें छोड़ते हो क्या यह धर्म कहा जा सकता है ? इसलिए हमारे कथन को स्वीकार करके तुम गृहस्थाश्रम में रहो। ऐसे प्रलोभनात्मक वचनों को सुनकर सच्चा वैराग्य सम्पन्न त्यागमार्ग का पथिक विचलित नहीं हो सकता है । वह यह मानता to ह मोह और स्वार्थ- जन्य वचन हैं। जिस प्रकार वृक्ष के गिर जाने पर पक्षीगण क्रन्दन करते हैं, उनका क्रन्दन स्वार्थमय है इसी तरह स्वजनों का यह कथन भी स्वार्थप्रेरित है । स्वजनों का यह मोह है - वास्तविक प्रेम नहीं । मोह में विवेक नहीं होता वहाँ वासना का वास है । प्रेम में विवेक होता है, जागृति होती है, कर्त्तव्य- श्रकर्त्तव्य का भान होता है। अगर स्वजनों के हृदय में मेरे प्रति प्रेम है तो वे मुझे मेरा कल्याण करते हुए नहीं रोक सकते। उनका रोकना ही उनके मोह को सूचित करता है। मातापुत्र का, पिता-पुत्र का, पति-पत्नी का इत्यादि सम्बन्ध कर्त्तव्य-सम्बन्ध मात्र होने चाहिए । यह सम्बन्ध मोह-सम्बन्ध न होना चाहिए। मोह सम्बन्ध पतन का कारण है। यह सोचकर वह सच्चा विरक्त श्रात्मा उनके वचनों में मुग्ध नहीं होता है। वह अपने स्वजनों के मोह को दूर करने की कोशिश करता है। उन्हें समझाता है। उन्हें प्रेम और मोह का भेद बताता है । यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि माता-पिता आदि बड़ों की आज्ञा पालन करना पुत्र का धर्म है। माता-पिता दीक्षा लेने से रोकते हैं तो पुत्र को उनकी आज्ञा माननी चाहिए या नहीं ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि बड़ों की वही आज्ञा मान्य करनी चाहिए जो कर्त्तव्यमार्ग में बाधक न हो । बड़े वही हैं जिन्हें अपने कर्त्तव्य का और दूसरे के कर्त्तव्य का बराबर ध्यान हो । अगर बड़े अपने कर्त्तव्य को चूकते हैं तो उनकी श्राज्ञा का भंग करने में दोष नहीं है। भक्त प्रह्लाद का पिता हिरण्यकशिपु भगवान् का द्रोही था। वह प्रह्लाद को ईश्वर का नाम न लेने की आज्ञा करता था लेकिन प्रह्लाद ने उसकी आज्ञा न मानी क्योंकि वह श्राज्ञा कर्त्तव्यमार्ग से भ्रष्ट करने वाली थी । इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्त्तव्यमार्ग पर जाते कोई रोकता है तो उसकी आज्ञा न मानना ही धर्म है। माता-पिता अगर पुत्र की भावना और सच्चे वैराग्य को जानते हुए भी अपने स्वार्थ या मोह के कारण त्यागमार्ग स्वीकार करने से रोकते हैं तो वे अपने कर्त्तव्य से चूकते हैं। दीक्षार्थी का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने त्याग और विरक्त भावना की छाप डालकर अपने माता-पिता को संतुष्ट करे और त्यागमार्ग अङ्गीकार करे । त्यागमार्ग स्वीकार करने वाले साधक के दिल में माता-पिता आदि स्वजनों के प्रति घृणा नहीं होती। घृणापूर्वक - आवेश के साथ लिया हुआ त्याग आवेश के कम होते ही विरम जाता है। सच्चे साधक को किसी के भी प्रति घृणा नहीं होती । वह तो मोह को जीतना चाहता है । वह प्रेम करता है— मोह नहीं। वह साधक मोहयुक्त संसार-सम्बन्ध का त्याग करना चाहता है । वह मोहमय संसार में नहीं फँस सकता है । उसे आत्मा के चैतन्य की झाँकी दिखाई देती है वह भला जड़ चीजों में कैसे मुग्ध हो सकता है ? जिसे चिन्तामणि रत्न प्राप्त हो गया है वह भला कांच के टुकड़ों से कैसे लुब्ध-तुब्ध हो सकता है । वह आत्मस्वरूप में रमण करता है। ऐसा साधक त्यागमार्ग की सम्यग् आराधना कर सकता है। वह मोह का विजेता बनकर मुक्ति प्राप्त करता है। त्याग ही For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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