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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] [ ४२६ जाइमरणस्स=जन्म-मरण के । वट्टमग्र्ग मार्ग को | अच्छे पार कर लेता है । विक्खायरए और मोक्ष में विराजमान हो जाता है । भावार्थ- - इस समस्त संसार में, ऊँची नीची और तिर्धी दिशा में सर्वत्र कर्मबन्धन के कारण ( पाप का प्रवाह ) रहे हुए हैं। जहां जहां जीव की आसक्ति है वहां वहां कर्म का बन्धन समझो । कर्म के चक्र को देखकर बुद्धिमान् संसार के विषयों को दूर से ही त्यागे । जो कोई महापुरुष कर्म के प्रवाह को क्षीण करने के लिए त्यागमार्ग स्वीकार करते हैं वे अकर्मा (घातिकर्म का क्षय करके ) होकर सर्वज्ञ और सर्वदृष्टा बनते हैं वे किसी प्रकार की आकांक्षा ( पूजादि की इच्छा) नहीं करते हैं । परमार्थ का विचार करके और संसार के श्रावागमन को जानकर जन्म-मरण के मार्ग को वह पार कर लेता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । विवेचन - सूत्रकार महात्मा फरमाते हैं कि संसार में सर्वत्र पाप के प्रवाह विद्यमान हैं। जिस प्रकार वैज्ञानिकों के सिद्धान्तानुसार "ईथर” नाम का तत्व सर्वत्र वायु मण्डल में व्याप्त है इसी तरह पाप प्रवाह भी सर्वत्र व्याप्त है। ऊर्ध्व दिशा में, अधो दिशा में और तिर्यग्दिशा में सर्वत्र पाप का सरोवर प्रवाहित है। भावदिशा की अपेक्षा ऊर्ध्व दिशा में वैमानिक देव रहते हैं। वहाँ वैमानिक देवांगना सम्बन्धी विषयाभिलाष विद्यमान है। अधोदिशा में भवनपति देवों की विषयाभिलाषा, तिर्यक् दिशा में मनुष्य और तिर्यञ्च की विषयाभिलाषा आदि कर्मास्रव के स्रोत विद्यमान हैं। लौकिक प्रज्ञापक दिशा की अपेक्षा ऊर्ध्व दिशा में अर्थात् पर्वतों के शिखरादि, अधोदिशा में नदी के किनारे गुफा आदि तथा तिर्यग्दिशा में बागarita दि विषयोपभोग के स्थान कर्मास्रव स्रोत हैं। विषयाभिलाषा आदि पाप अनेक भवों से अभ्यस्त होने से इनके द्वारा जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता रहता है। जिस प्रकार जल का सरोवर सदा बहता है इसी प्रकार पाप-द्वारों से कर्मरूपी जल सदा आता रहता है इस लिए इन्हें भी स्रोत कहा गया है। प्रतिपल और प्रति आकाश प्रदेश पर कर्मास्त्रव के कारण विद्यमान हैं। इसलिए साधक को सतत सावधान रहना चाहिए । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि प्रति क्षेत्र पर कर्म के उपार्जन के कारण विद्यमान हैं तो कोई जीव "मुक्त नहीं होना चाहिए क्योंकि सर्वत्र कर्म के श्रस्रव के कारण विद्यमान हैं ? इस शंका का समाधान स्वयं सूत्रकार करते हैं कि कर्मास्रव के कारण सर्वत्र विद्यमान हैं तदपि जहाँ जीव की श्रासक्ति होती है वहीं कर्म आकर चिपक जाते हैं । अन्यथा नहीं । राग-द्वेष रूप परिणति जहाँ है वहाँ कर्मबन्ध है । जहाँ आर्द्रता - स्निग्धता ( आसक्ति ) है वही बन्ध है । कर्म का प्रवाह सर्वत्र होने पर भी जो साधक अपने द्वारों को खुले नहीं रखते उनमें कर्म के पुद्गल प्रवेश नहीं कर सकते। जिसका चित्त खुला रहता है - जिसके द्वार खुले रहते हैं वहीं कर्म पुद्गल प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए चाहे जैसी अवस्था पर पहुँचे हुए व्यक्ति 'को भी अपनी आसक्ति - राग-द्वेष परिणति पर पूरी दृष्टि रखनी चाहिए। चित्तवृत्ति पर पूरी चौकी करने 'सेव सदा सावधान रहने से कर्मबन्ध नहीं होता है । संतत जागृति के कारण को बताने के पश्चात् सूत्रकार अब जागृति का फल बताते हुए फरमा हैं कि जो महापुरुष रागद्वेष, विषय और कषाय के भाव चक्र को भलीभांति ज्ञ-परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान- परिज्ञा द्वारा छोड़ते हैं वे प्रत्रजित होकर घातिकर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदृष्टा बन जाते हैं। वे अकर्मा बन जाते हैं; उन्हें कर्म का बन्धन नहीं होता । क्योंकि कर्मबन्धन का कारण ही चला For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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