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प्रथम उद्देशक ]
[१५ होता है इसी तरह "मेरा शरीर" कहने से शरीर और उसका स्वामी अलग २ प्रतीत होता है। जो शरीर का स्वामी है वही आत्मा है और वही 'अहं' प्रत्यय से निर्दिष्ट है।
___ अतः प्राणिमात्र को होने वाला यह "अहं" ज्ञान आत्मा की प्रत्यक्षता का उल्लेख करने वाला प्रबल प्रमाण है।
अनुमान आदि प्रमाणों से भी आत्मा की सिद्धि होती है । चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान श्रादि को प्रमाण-रूप नहीं मानता है । उसकी यह मान्यता असत्य और असंगत है। जो अर्थ को ठीक-ठीक बतलाता है उसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष भी तभी प्रमाण होता है जब वह अर्थ को ठीक-ठीक बतलाता है। तिमिर आदि दोष के कारण प्रत्यक्ष भी अप्रमाण होता है । तात्पर्य यह है कि चाहे प्रत्यक्ष हो या अनुमान, जो कोई अर्थ को ठीक-ठीक बतलाता है वही प्रमाण है। अनुमान भी पदार्थ को ठीक-ठीक बताने वाला होता है अतः वह भी प्रमाण है।
अनुमान को प्रमाण माने विना प्रत्यक्षज्ञान की प्रमाणता भी सिद्ध नहीं की जा सकती है। अपना प्रत्यक्ष अपने ही अनुभव में आता है, उसके द्वारा दूसरे को शान नहीं हो सकता है। दूसरे को अपने प्रत्यक्ष का ज्ञान कराने के लिए वाणी का आश्रय लिया जाता है। उस वाणी के द्वारा श्रोता को जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष न होकर शान्द-बोध-अनुमान कहलाता है। प्रत्यक्ष शान इसलिए मूक कहलाता है कि वह अपने ही अनुभव में प्राता है। अतः अपने प्रत्यक्ष की प्रमाणता सिद्ध करने के लिए अनुमान का आश्रय लेना ही पड़ता है । इसके बिना अपने पक्ष का प्रतिपादन असम्भव होता है।
दूसरी बात यह है कि अनुमान को प्रमाण माने विना दूसरे के अभिप्राय का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरे के अभिप्राय को समझे विना भाषण करना उन्मत्त प्रलापवत् ही होता है । अतः चेष्ठा श्रादि के द्वारा दूसरे की चित्तवृत्ति को समझने के लिए अनुमान-प्रमाश की आवश्यकता होती है।
तीसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष के द्वारा किसी चीज़ का निषेध नहीं होता। प्रत्यक्ष का काम तो इन्द्रिय-सम्बद्ध पदार्थ को बता देना मात्र होता है। जैसा कि कहा गया है
आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेध विपश्चितः अर्थात्-प्रत्यक्ष का काम विधान करना मात्र है। निषेध करना उसका काम नहीं है। चार्वाक लोग स्वर्ग प्रादि का निषेध किये बिना चैन नहीं पाते और इधर प्रत्यक्ष के सिवा अन्य अनुमान आदि को प्रमाण भी नहीं मानते यह उनका कैसा बाल-हठ है !
अनुमान से श्रात्मा की सिद्धि आत्मा का अस्तित्व है क्योंकि उसका असाधारण गुण-चैतन्य देखा जाता है। जिसका असाधारण गुण देखा जाता है उसका अस्तित्व अवश्य होता है जैसे चक्षुरिन्द्रिय । चक्षु सूक्ष्म होने से साक्षात् दिखाई नहीं देती लेकिन अन्य इन्द्रियों से न होने वान्ते रूप-विज्ञान को उत्पन्न
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