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[ आचाराङ्ग-सूत्रम
लक्षण ही उपयोग है। उपयोग ज्ञानात्मक ही होता है। यहाँ ज्ञान और आत्मा का अभेद बताया गया है इससे कोई यह शंका कर सकता है कि अगर ज्ञान और आत्मा अभिन्न है तो एक ही वस्तु होना चाहिए ज्ञान और आत्मा की भिन्न प्रतीति नहीं होनी चाहिए। इसका समाधान यह है कि यहाँ अभेद बताया गया है, ऐक्य नहीं । ज्ञान और आत्मा-धर्म और धर्मी में अभेद है, ऐक्य नहीं है अतएव यह शंका निर्मूल है।
आत्मा का लक्षण ज्ञान है । अर्थात् ज्ञान ही आत्मा का असाधारण गुण है । आत्मा को छोड़कर अन्यत्र ज्ञान नहीं रह सकता । श्रतएव ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है ।
नैयायिक और वैशेषिक लोग ज्ञान को आत्मा का स्वरूप नहीं मानते। उनके मत के अनुसार ज्ञानभिन्न वस्तु है और आत्मा भिन्न वस्तु है । वे ज्ञान और आत्मा को सर्वथा भिन्न मानते हैं । उनके मत
अनुसार जीव जब मुक्त होता है तब बुद्धि आदि नव धर्मों का ( बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, धर्म और संस्कार ) श्रात्यन्तिक विनाश हो जाता है। यदि जीव को और ज्ञान को अभिन्न माना जाय तो मुक्त दशा में ज्ञान का नाश होने पर श्रात्मा का भी नाश हो जायगा । यह उचित नहीं है अतएव ज्ञान और आत्मा को भिन्न २ मानना चाहिए ।
वैशेषिक और नैयायिकों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । अगर ज्ञान को श्रात्मा से सर्वथा भिन्न माना जायगा तो ज्ञान से आत्मा को पदार्थ बोध ही नहीं होगा । कल्पना कीजिये कि - जिनचन्द्र किसी वस्तु को जानता है तो इससे ज्ञानचन्द्र का अज्ञान दूर नहीं होता क्योंकि जिनचन्द्र का ज्ञान, ज्ञानचन्द्र से सर्वथा भिन्न है । तात्पर्य यह हुआ कि जो ज्ञान जिससे सर्वथा भिन्न होता है उससे उसको ज्ञान नहीं हो सकता । अगर ऐसा न माना जाय तो एक व्यक्ति के ज्ञान से सभी के ज्ञान की निवृत्ति हो जानी चाहिए फिर जो संसार के व्यक्तियों में ज्ञान की तरतमता देखी जाती है वह नहीं हो सकती सबका ज्ञान तुल्य हो जायगा, सभी ज्ञानी हो जायगे - सिद्धों के ज्ञान से सभी ज्ञाता हो जायगे तो ज्ञानोपार्जन का प्रयत्न ही नष्ट हो जायगा। मगर ऐसा नहीं हो सकता । प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान द्वारा ही अपने अज्ञान " को नष्ट कर सकता है। दूसरे के ज्ञान से हमें वस्तु का बोध नहीं हो सकता क्योंकि उसका ज्ञान हमारी आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं । इसी तरह यदि हमारा ज्ञान हमारी आत्मा से भी सर्वथा भिन्न है तो वह हमें भी ज्ञान कैसे करा सकता है ? इसलिए यह मानना चाहिए कि हमारा ज्ञान हमारी आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है लेकिन श्रात्मा का ही स्वरूप है ।
यहाँ वैशेषिक कहते हैं कि आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न तो हैं लेकिन वे समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध हैं अतएव जो ज्ञान जिस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहता है वह ज्ञान उसी आत्मा को पदार्थ का बोध करा देगा । दूसरी श्रात्मा को नहीं। यह उनका कथन भी निर्मूल है। समवाय सम्बन्ध, नित्य सम्बन्ध को कहते हैं । अर्थात् जो सम्बन्ध अनादि से है वह समवाय है । यह समवाय वैशेषिकों के मत से नित्य और सर्वव्यापक है। उनके मत में आत्मा भी सर्वव्यापक है । इससे प्रत्येक आत्मा के साथ ज्ञान का समवाय सम्बन्ध सरीखा होगा | जैसे आकाश नित्य और व्यापक है तो उसका सम्बन्ध सभी के साथ है इसी तरह समवाय का सम्बन्ध भी सभी के साथ है फिर प्रतिनियत ज्ञान का नियामक कौन होगा ? श्रतएव यही मानना चाहिए कि श्रात्मा ज्ञानस्वरूप ही है ।
शंका- आत्मा और ज्ञान में कर्त्ता और करण का भाव है। जैसे मैं ज्ञान से जानता हूँ यहाँ "मैं" से ज्ञाता मालूम होता है और “ज्ञान” करण मालूम होता है। जिसमें कर्तृकरण भाव सम्बन्ध होता है वे
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