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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ] [ ४१५ . नहीं होता । समझपूर्वक नहीं होता । वह आज माता को माता कहता है कभी वह माता को स्त्री कहने लगता है । कभी वह स्त्री को स्त्री कहता है तो कभी वह स्त्री को माता भी कहने लगता है। इसलिए उसका सच्चा ज्ञान भी पागलपन ही समझा जाता है। उसी तरह मिथ्यादृष्टि बाह्य पदार्थों को उसी रूप में जानता है-वह सोने को सोना जानता है, घर को घर जानता है तो भी उसको सत् और असत् का विवेक नहीं होता अतएव उसका ज्ञान भी अज्ञान ही कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि का आशय अशुद्ध होता है अतएव सत्य को भी अपनी अशुद्ध विचारणा द्वारा असत्य बना लेता है। यह विचार कर मिथ्यारूप का त्याग करना चाहिए । शंका, कांक्षा, विचिकित्सा का त्याग कर शुद्ध श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन का अवलम्बन लेना चाहिए। सम्यग्दशन ही मोक्ष का कारण है। कहा है: नादंसाणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होंति चरणगुण।। अगुणिस्स नस्थि मोक्खो नत्थि अमुक्खस्स निव्वाणं ॥ अर्थात्-सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं हो सकता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं हो सकता, चारित्र के बिना कर्म से मुक्ति नहीं हो सकती, कर्ममुक्ति के बिना निर्वाण नहीं हो सकता। इससे यह फलित होता है कि सम्यग्दर्शन के बिना समस्त ज्ञान और चारित्रशून्य है। सम्यग्दर्शन होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र हो सकते हैं। अतएव मोक्षरूपी महल पर चढ़ने के लिए सम्यगदर्शन प्रथम सोपान है । विवेकी मुमुक्षुओं को अपनी श्रद्धा को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी पर साधना की सफलता या असफलता का दारमदार है। सूत्रकार ने इसीलिए श्रद्धा पर इतना भार दिया है । जिनवचन पर पूरी श्रद्धा रखना भवसागर से पार हो जाना है । यह श्रद्वा ही मोक्षदायिनी है। - उवेहमाणे अणुवेहमाणं बूया-उवेहाहि समियाए, इच्छेवं तत्थ संधी झोसियो भवइ, से उट्टियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थवि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा। संस्कृतच्छाया-उत्प्रेक्षमाणः अनुत्प्रेक्षमाण बयाद उत्प्रेक्षस्व सम्यक्तया, इत्येवं तत्र संधिषितः भवति, स तस्योस्थितस्य, स्थितस्य गतिं समनुपश्यत अत्रापि बालभावे आत्मानं नोपदर्शयेत् । शब्दार्थ-उवेहमाणे-सम्यग् विचारवान् पुरुष । अणुवेहमाणं अविचारशील को। बया ऐसा कहे । समियाए-तू सम्यक रूप से । उवेहाहि-विचार कर । इच्चेव-इसी तरह । तत्व संयम में प्रवृत्ति से ही । संधि कर्म का । झोसियो भवइ नाश होता है। से उस । उडियस्स= जागृत श्रद्धाशील की। ठियस्स पासत्थ-शिथिलाचारी की। गई-गति को । समणुपासह बराबर देखो । इत्थवि=इस | बालभावे चालभाव में | अप्पाणं अपनी आत्मा को । नो उवदंसिजा= स्थापित न करे। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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