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प्रथम उद्देशक ]
[१३
मदी की बाढ़ को देखकर पर्वत पर वर्षा होने का ज्ञान करना अर्थापत्ति कहलाता है। प्रात्मा के विना ही सब पदार्थ-व्यवस्था बरावर बनी हुई है अतः अर्थापत्ति के द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता।
__उक्त पांचों प्रमाणों के द्वारा आत्मा का ग्रहण नहीं होता अतः यह सिद्ध होता है कि आत्मा का अभाव है अतः वह अभावग्रमाण का विषय है। आत्मा नहीं है क्योंकि उक्त पांच प्रमाणों से उसका ग्रहण नहीं होता। जिसका इन पांच प्रमाणों से ग्रहण नहीं होता उसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे खर-विषाण ।
आत्मा के अभाव में उसका दिशा-विदिशा से आना और भवान्तर में संचरण करना असम्भव है अतः इस सूत्र की आवश्यकता ही नहीं है ।
--श्रात्मा की सिद्धिसमाधान यह सब लम्बा-चौड़ा कथन बालुका की भींत पर खड़े किये गये महल के समान है। श्रात्मा को अप्रत्यक्ष मानकर ही यह सब व्यर्थ प्रगल्भता प्रदर्शित की गई है। श्रात्मा का प्रत्यक्षत्व सिद्ध होने पर शंकाकार का खड़ा किया हुआ रेत का महल क्षणभर में धराशायी हो जाता है। अतः आत्मा का प्रत्यक्षत्व सिद्ध किया जाता है:
आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि उसका ज्ञानगुण स्वसंवेदन-सिद्ध है। घट-पटादि भी उनके गुग-रूप आदि का प्रत्यक्ष होने से ही प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। इसी तरह आत्मा के शान-गुण का प्रत्यक्ष होने से वह भी प्रत्यक्ष सिद्ध होती है ।
शंका-ज्ञान, प्रात्मा का गुण नहीं है । वह तो पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और प्राकाश रूप पञ्च महाभूतों के कायाकार-परिणत होने पर उनले प्रकट होता है, जिस प्रकार मध के अंगों के मिलने पर उनमें मद शशि प्रकट होती है, इसी तरह भूतों के कायाकार-परिणत होने पर चैतन्य प्रकट हो जाना है। जिस प्रकार जल से बुख़ुद प्रकट होता है उसी तरह भूतों से चतन्य प्रकट होता है। इसलिए चैतन्य गुण के कारण प्रात्मा का पृथक् अस्तित्व सिद्ध नहीं होता अपितु चैतन्य भूतों का धर्म होकर आत्मा का अभाव ही सिद्ध करता है।
समाधान-चैतन्य भूतों का धर्म नहीं हो सकता। क्योंकि भूतों में-पृथ्वी का आधार और काठिन्य गुण है, पानी का द्रवत्व गुण है, तेज का गुरण पाचन है, वायु का गुण चलन है और आकाश का गुण स्थान देना है। ये गुण चैतन्य से भिन्न हैं। चैतन्य से भिन्न गुण बाले पदार्थों के समुदाय से चैतन्य की अभिव्यक्ति कैसे हो सकती है ? अन्यगुण वाले पदार्थों के सम्मेलन से अन्य नवीन गुण की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जैसे वालुका के समुदाय से तेल की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बालुका में स्निग्धत्व का अभाव होने से जैसे उससे स्निग्ध गुणवाला तेल नहीं निकल सकता है उसी तरह पांव महाभूतों में चैतन्य न होने के कारण उनके संयोग से चैतन्य की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। जैसे घट-पट के समुदाय से स्तम्भ का आर्विभाव नहीं हो सकता उसी तरह भूतों से चैतन्य का आविर्भाव नहीं हो सकता। शरीर में चैतन्य-गुण की उपलब्धि होती है, अतः यह बताता है कि चैतन्य आत्मा का धर्म है।
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