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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०२] [आचाराग-सूत्रम् भावार्थ हे आत्मार्थी शिष्य ! कामभोगों में फंसने के पहिले विविध पापों में फंसकर संकट भोगने पड़ते हैं तब कामभोगों का भोग हो सकता है ( चेतन को बेचे बिना विकार की तृप्ति नहीं)। अथवा पहिले कामभोग का सेवन करे तो पीछे पाप का सेवन और संकट का भोग करना पड़ता है । सीसंसर्ग कलह-रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला है यह बात भली प्रकार से जानकर-विचार कर मुमुक्षु साधक इससे सदा दूर रहे । इसका सेवन न करे । स्त्रीसंग के त्यागी मुनि को स्त्रियों की कथा-वार्ता (शंगार कथा ) नहीं करनी चाहिए, स्त्रियों के अवयवों को नहीं देखना चाहिए, उनमें ममत्व न करना चाहिए, उनकी वैयावृत्य न करनी चाहिए, उनके साथ बातचीत अत्यन्त मर्यादित करनी चाहिए इस तरह अपने मन पर पूरा नियंत्रण करके पाप से सदा दूर रहना चाहिए और मुनिभाव का सम्यक् पालन करना चाहिए। विवेचन-इस सूत्र में यह बताया गया है कि काम-वासना क्यों अधमता का कारण है और क्यों इसका सर्वाश से त्याग करने का सूत्रकार प्रबल कथन करते हैं। सूत्रकार इस का इतना निषेध करते हैं इसीसे इसकी भयंकरता समझ लेनी चाहिए । काम-वासना पर विजय पाना अति दुष्कर है। कहा भी है मत्तेभकुम्भदलनेभुवि सन्ति शूराः, कोचत्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बालिना पुरतः प्रसह्य कन्दर्प-दर्प-दलने विरला मनुष्याः॥ अर्थात्-संसार में बड़े २ शूरवीर हैं जो मदोन्मत्त हाथी के गण्डस्थल का विदारण कर सकते हैं, कई ऐसे भी वीर हैं जो विकराल अयाल वाले सिंह का भी वध कर सकते हैं। लेकिन समस्त बलवानों के सामने, मैं यह कहता हूँ कि काम के अहंकार को चूर करने वाले संसार में विरले हैं। जो योद्धा अपने आपको शक्तिशाली और अजेय मानते हैं वे भी स्त्री के मोह से कायर होते हुए देखे जाते हैं। काम पर विजय पाने वाला ही सच्चा महावीर है। काम की उत्पत्ति मन से होती है अतएव काम का नाम मनोज भी है । अगर मन के संकल्पों पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो काम उत्पन्न ही नहीं हो सकता। कहा भी है: ... काम ! जानामि ते रूपं संकल्पात् किल जायसे । न त्वा संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ॥ अर्थात्-हे काम ! मैं तेरा रूप जानता हूँ कि तू संकल्प से उत्पन्न होता है परन्तु मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा तो तू उत्पन्न ही कैसे होगा? अतएव संकल्पों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । संकल्पजात काम इतने लुभावने और भयंकर हैं कि ये आत्मा को बेभान कर देते हैं। विषय-वासना का वेग जब तक चित्त पर असर करता है तब तक आत्मा दास बनी रहती है । आत्मा को बेचकर के ही काम का सेवन किया जा सकता है । जब तक वासना का असर चित्त पर बना रहता है तब तक साधक साधना में कभी सफल नहीं हो सकता । जिस तरह एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती उसी तरह चित्त में विकार और संस्कार एक साथ नहीं रह सकते । संस्कारी जीवन पर ही जीवन का आधार है और कामविकार संस्कार का नाश करता है इसीलिये सूत्रकार अब्रह्म-क्रिया का इतना सख्त निषेध करते हैं। सूत्रकार अब्रह्म क्रिया को पतन का कारण और पाप की परम्परा का हेतु समझते हैं। काम-सेवन के पहिले अथवा पीछे भयंकर पापकों में फँसना पड़ता है और पापक्रिया में फंसने से उनके भयंकर परिणाम-संकट भोगने पड़ते हैं । अब्रह्म सेवन के कटु परिणाम इस लोक में भी भोगने पड़ते हैं और परलोक For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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