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[प्राचाराग-सूत्रम् .
एवं गच्छसमुद्द सारणवीई हिं चोइया संता ।
णिति तो सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति ॥ अर्थात्-जैसे समुद्र के संक्षोभ को नहीं सहन करने वाली मछलियाँ समुद्र से बाहर सुख पाने की इच्छा से आती हैं लेकिन वे किनारे की रेती में पड़ कर विनष्ट हो जाती हैं उसी तरह जो प्राचार्यादि के अनुशासन को नहीं सहन करते हुए, सुख की इच्छा से स्वच्छन्द होकर गच्छ से निकल जाते हैं वे निकलते ही मछलियों की तरह नाश को प्राप्त करते हैं । और भी कहा है:
गच्छाम्मि केइ पुारसा सउणी जह पंजरंतरणिरुद्धा । सारण--वारण-चोइय, पासत्थगया परिहरन्ति ॥ जहा दियापोयमपक्खजायं, सवासया पविउमणं मणांग ।
तमचाइया तरुणमपत्तजायं ढंकादि अव्वत्तगम हरेज्जा ॥ जैसे शकुनि पक्षी पिंजड़े में बन्द रहता है तो वह हिंसा नहीं कर सकता है उसी तरह जो साधु गच्छ में रहते हैं वे प्राचार्यादि द्वारा स्मरण (अपराध की याद) और वारण (पाप से रोकना) से प्रेरणा किये जाने पर अपने शिथिल आचार को त्याग देते हैं और सुधर जाते हैं। जिस तरह पंखरहित पक्षी का बच्चा अपने घोंसले से बाहर आने के लिए प्रयत्न करता है तो उसे मयूर आदि उठा ले जाते हैं इसी तरह जो साधु श्रुत और वय से अव्यक्त हैं वे यदि गच्छ से निकल जाते हैं तो विनाश को प्राप्त करते हैं।
___कल्पातीत पुरुषों का एकलविहार उनकी उच्च भूमिका के कारण योग्य है लेकिन उनका अनुकरण यदि सामान्य साधक करें तो विनाश को प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार स्थूलिभद्र के समान उच्चकोटि पर पहुंचे हुए साधु वेश्या के यहाँ रहे और वे अपनी साधना में संक्षुब्ध और विचलित न हुए । लेकिन उनका अनुकरण करके एक साधु ने भी वैसा ही किया तो वह पतित हो गया। इसी तरह जो व्यक्ति अपनी शक्ति को देखे बिना अन्धानुकरण करता है वह हानि उठाता है।
इन्द्रियों और पदार्थों का आकर्षण बढ़ा तीव्र होता है । इस पर एकान्त-वास तो इनको वेग देने वाला हो जाता है । उच्चकोटि के ऋषि मुनियों के लिए एकान्तवास जहाँ हितकर है वहीं साधारण व्यक्तियों के लिए वह पाप का उत्तेजक भी हो जाता है। एकान्तस्थान में विषयों और इन्द्रियों पर काबू करना कठिन है । एकान्तस्थान चोर को चोरी करने का अवसर देता है, कामियों को काम-वासना का अवसर देता है और दोषियों को दोष सेवन का अवसर देता है । यह स्वच्छन्दाचार का पोषण करता है । ये मन
और इन्द्रियाँ चिरकाल से विषयों की ओर दौड़ने की अभ्यासी हैं अतएव वे अवसर पाकर उस पर शीघ्र दौड़ जाती हैं । एकान्त और एक-चर्या उन्हें वेग देती है। अतएव साधकों के लिए एक-चर्या का निषेध किया गया है।
वयसा वि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणे य नरे महया मोहेण मुज्झइ, संबाहा वहवे भुजो भुजो दुरइक्कम्मा अजाणो अपासो, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दसणं, तट्टिीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरकारे तस्सन्नी
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