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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६० ] [प्राचाराग-सूत्रम् चली आ रही है । त्यागी साधकों के लिए भी गुरु-शिष्य का व्यवहार इसी आशय से उपयोगी है। उनमें भी गच्छ, अथवा सम्प्रदाय के नाम से यह प्रणालिका प्रचलित है। दुनिया के प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक ने इसी श्राशय से इस प्रणाली को अपनाया है और साधकों में प्रगति, जागृति और व्यवस्था बनी रहे इसी हेतु से तीर्थ, संघ आदि की स्थापना की है। इस संघ, तीर्थ या गच्छ का अवलम्बन लेकर साधना के मार्ग में आसानी से आगे बढ़ा जा सकता है । अतएव गच्छ के अन्तर्गत रहकर साधना करनी चाहिए। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि साधकों के विकास और योग्यता में तरतमता रहती है। सभी साधक समान नहीं होते । जिन साधकों का विकास अधिक हो गया है, जो उच्च अवस्था तक पहुँच गये हैं उनके लिए गच्छ आदि अवलम्बन की उतनी आवश्यकता नहीं रहती जितनी कि अन्य साधकों के लिए रहती है । इसी आशय से कल्प और अकल्प का जैनागमों में भेद किया गया है। विशिष्ट ज्ञानी तीर्थक्कर मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधारी आदि उच्च अवस्था पर पहुंचे हुए महापुरुषों के लिए कल्प नहीं हैं । वे कल्पातीत होते हैं। लेकिन उनका उदाहरण सामने रखकर यदि सामान्य साधक भी कल्प का पालन न करे तो इसका परिणाम बुरा होता है । एक समर्थ व्यक्ति उच्च जाति की मात्रा (रसायन) का सेवन करता है और वह उसे हजम करके कान्तिवान् , हृष्टपुष्ट और बलवान होता है । उसे देखकर यदि कमजोर व्यक्ति भी अपनी शक्ति का विचार न करके मात्रा का सेवन करे तो वह मात्रा उसके शरीर के लिए घातक सिद्ध होगी। इसी तरह उच्च अवस्था पर पहुँचे हुए महात्माओं का अनुकरण-अन्धानुकरण करके कोई सामान्य साधक गच्छादि के कल्प को तोड़ता है तो उसके लिए यह पतन का कारण है । अतएव तीर्थकरों के या प्रतिमा-प्रतिपन्न महात्माओं का उदाहरण देकर जो साधक गच्छ से बाहर निकल कर स्वच्छंद विचरते हैं वे अवश्यमेव पतित होते हैं। सूत्रकार ने “अवियत्तस्स" विशेषण दिया है । अर्थात् अपरिपक्व साधु का एकलविहार निन्दनीय है। अपरिपक्वता दो अपेक्षाओं से समझनी चाहिए । एक श्रुत-कृत अपरिपक्वता दूसरी वय-कृत अपरिपक्वता । जो साधु ज्ञान और वय में अपरिपक्व है उसकी एक-चर्या निषिद्ध है । जिसने आचार कल्पों का अध्ययन नहीं किया है वह स्थविरकल्पी (गच्छान्तवर्ती) साधु श्रुत से अव्यक्त है । जिनकल्पी साधु नवम पूर्व की तृतीय वस्तु तक का ज्ञाता न हो तो वह श्रुत से अव्यक्त है । अवस्था से अव्यक्त गच्छान्तर्वर्ती वह है जो १६ वर्ष से कम है और जिनकल्पी वह है जो ३० वर्ष से कम है। यहाँ चतुर्भङ्गी है। (१) श्रुत तथा वय से अव्यक्त। (२) श्रुत से अव्यक्त, वय से व्यक्त । (३) श्रुत से व्यक्त, वय से अव्यक्त। (४) श्रुत से व्यक्त, वय से व्यक्त । प्रथम भंग में वर्तमान साधकों को एक-चर्या नहीं कल्पती है । श्रुत और वय दोनों से अव्यक्त साधक यदि अकेला विचरेगा तो वह संयम और आत्मा की विराधना करेगा। दूसरे भंग में वर्तमान साधुओं को भी एक-चर्या नहीं कल्पती है । वे वय से व्यक्त है किन्तु अगीतार्थ होने से संयम और आत्मादोनों की विराधना कर सकते हैं । तृतीय भंगापन्न साधुओं को भी एक-चर्या अकल्पनीय है। वे श्रुत से व्यक्त हैं किन्तु अवस्था से अपरिपक्व होने से पराभव को प्राप्त हो सकते हैं । चोर एवं कुलिंगियों से भय की शंका रहती है अतएव उन्हें भी एक-चर्या नहीं कल्पती है । चतुर्थ भंग में रहे हुए साधक श्रुत और वय For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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