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[आचाराङ्ग-सूत्रम् परिणाम हो सकता है ! थोड़े ही क्षण पूर्व जो शरीर स्वस्थ एवं सुन्दर था तथा जिस पर मैं अभिमान करता था वही शरीर अब रोगों का घर हो गया है, यह कैसा आश्चर्य ! क्या यह इतना विनश्वर और इतना परिवतेनशील है ? क्या यह इतना असार है ? विचारधारा में डूबते हुए उन्हें देह की असारता प्रतीत हुई । देह उन्हें रोगों का पिण्ड प्रतीत हुआ । अशुचिमय पदार्थों से भरे हुए देह पर उन्हें विरक्ति पैदा हुई और उन्होंने संयम स्वीकार करना चाहा । असार शरीर से संयम रूपी सार को पाना चाहा। अन्ततो गत्वा उन्होंने संयम अङ्गीकार किया और असार से सार पाया।
सनत्कुमार चक्रवर्ती के इस उदाहरण को लक्ष्य में रख कर साधकों को अपने देह के ममत्व को दूर करना चाहिए । जब तक देह का ममत्व दूर नहीं होता वहाँ तक श्रात्म-साधना नहीं हो सकती । अतएव सूत्रकार ने देह-ममता का त्याग करने का कहा है । श्रात्मा और देह का ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि कई अज्ञानी जीव तो देह को ही आत्मा समझने की भूल कर बैठते हैं। जिन्हें देह और आत्मा की भिन्नता का भान होता है वे भी देह के ममत्व में फँस जाते हैं । यह ममत्व उन्हें धर्म की निर्मल श्राराधना नहीं करने देता।
जब तक अन्तःकरण में शरीर के प्रति ममत्वभाव विद्यमान रहता है तब तक विषयों का पूर्णरूप से त्याग नहीं किया जा सकता । शरीर पर घोर ममता-भाव होने से मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है कि जिससे शरीर का पोषण होता हो । इसी से वह साताशील हो जाता है। तपश्चर्या आदि से विमुख हो जाता है और भोगोपभोग भोगने में मस्त हो जाता है। अतः आत्महितैषी प्राणियों को अपने शरीर से ममत्व हटाने का प्रयत्न करना चाहिए । शरीर-सम्बन्धी ममता हटाने का सहज उपाय उसके वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करना है। शरीर इतना बीभत्स और मलिन है कि उसका विचार करने से विरक्ति अवश्य होती है । योगीजन शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का चिन्तन करते हैं और अशुचित्व भावना के चिन्तन द्वारा शरीर के ममत्व का नाश करते हैं।
शरीर की उत्पत्ति रज और वीर्यरूप अशुचि पदार्थों के संयोग से होती है। शरीर को विविध प्रकार के अत्यन्त दूषित घृणाजनक मल का थैला कहा जा सकता है। ऊपर से मढ़े हुए चमड़े के चद्दर को अगर दूर कर दिया जाय तो शरीर का जो रूप दिखाई देने लगेगा वह कैसा बीभत्स और घृणाजनक है ! यह इसका असली स्वरूप है !! रक्त, मांस, हड्डी, मल-मूत्र का पिण्ड यह शरीर असार है। इसमें सारतत्त्व नहीं है। अनेक खिड़कियों से भीतर का मल बाहर निकल कर मनुष्यों को भीतर के शरीर का स्वरूप दिखाता रहता है। फिर भी मोहान्ध मनुष्य उसे नहीं देखता। शरीर की अपावनता का इससे अधिक प्रमाण और क्या चाहिए कि इसमें जाकर अन्य पावन पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं । षट्रस व्यंजन शरीर में जाकर क्या बन जाते हैं ? सुगन्धित आहार की शरीर में जाने पर क्या दशा हो जाती है ? इस शरीर के संयोगमात्र से प्रत्येक वस्तु अपवित्र हो जाती है । ऐसे अपवित्र देह पर मनुष्य ममताभाव रखता है। इसे कष्ट न होने पाए इस विचार से व्रत, उपवास आदि शुभ क्रियाएँ भी नहीं करता। इस असार शरीर पर वह सारभूत आत्महित एवं धर्म को न्यौछावर कर देता है यह ज्ञान का दिवाला है ! अज्ञान का अतिरेक है ! मोह की विडम्बना है ! घोर प्रमाद है !!
जिस तरह कमल जल में रहकर भी जल से लिप्त नहीं होता उसी तरह साधक भी शरीर का संयमार्थ पालन-पोषण करता हुआ भी उस पर ममत्व नहीं रखता । वह अध्यात्महित के लिए शरीर को एक साधनमात्र समझ कर उसका निर्वाह करता है । वह शरीर के लिए आत्महित को नहीं त्यागता ।
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