SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुथ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ३२५ विवेचन --गत उद्देशक में देहदमन का उपदेश दिया गया है। देहदमन तपश्चरण का ही अंग है। अब इस सूत्र में तपश्चरण का विवेक समझाया गया है। तपश्चर्या की शोभा संयम और उपशम से है। जितने अंश में संयम और उपशम होता है उतने ही अंश में तपश्चर्या सार्थक होती है । अतएव सूत्रकार यह फरमाते हैं कि पूर्व संयोगों को छोड़कर और उपशम-वृत्ति प्राप्त कर तप यथाक्रम प्रवृत्ति करनी चाहिए | पूर्व संयोग का अर्थ है धन, धान्य, पुत्र कलत्रादि संसार सम्बन्धी जड़ ममताअथवा अनादि भाव का अभ्यस्त असंयम भी पूर्व संयोग कहा जाता है । सांसारिक ममता को और असंयम को छोड़कर जो तप किया जाता है वह सार्थक है। पूर्वसंयोग - बाह्य पदार्थों की ममता-ि प्रबल होते हैं अतएव उनके त्याग में और उनके पुनः स्मरण होने के विषय में सदा सतर्क रहना चाहिए । लोकैषणा - ख्याति या अन्य सांसारिक कामना संयोग रूप है। अतएव तप करने के पहिले उनका त्याग कर देना चाहिए । कामनाओं के और कषायों के बिना जो तप किया जाता है वह उच्च कोटि का तप है और ऐसा तप ही उपादेय है । तप की उपादेयता बतला कर सूत्रकार ने उसका क्रम बताया है । प्रत्येक कार्य का आरम्भ यदि छोटे रूप में हो और क्रमिक विकास होता रहे तो उस कार्य में स्थिरता, पुष्टता और सुव्यवस्था होती है। इसी आशय से सूत्रकार ने फरमाया है कि प्रारम्भ में अल्प तप देह-दमन करे और पश्चात् उससे विशेष तप करे और बढ़ते हुए अन्त में पूर्ण रूप देह-दमन करे । प्रव्रज्या अंगीकार करते समय अल्प, तत्पश्चात् आगमों का अध्ययन करके विशेष और शरीर का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर सम्पूर्ण रूप से तपश्चर्या द्वारा शरीर का दमन करे । द्वारा कर्मों के क्षय करने के उद्देश्य से तप का अनुष्ठान किया जाता है लेकिन कई प्राणी पूजा, सांसारिक लाभ, एवं ख्याति के लिये भी तप करते हैं अतएव ऐसे तप से- शरीरपीड़न से कोई विशेष लाभ नहीं होता । अथवा उक्त सूत्र की इस प्रकार से व्याख्या की जा सकती है कि कर्म ही कार्मण शरीर है । इस कामे शरीर को प्रथम अल्प, फिर विशेष और तदनन्तर सम्पूर्ण रूप से पीड़ित कर देना चाहिए । सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लगाकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक (चतुर्थ गुणस्थान से सातवें गुणस्थान (क) कर्मों को मर्यादा पूर्वक पीड़े । तदनन्तर निवृत्ति अनिवृत्ति बादर ( आठवें नौवें में ) गुणस्थान में विशेष रूप से प्रपीड़न करे और सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान से कर्मों को सविशेष क्षय करे । अथवा उपशम श्रेणी में मर्यादा पूर्वक पीड़न, क्षपक श्रेणी में प्रपीड़न और शैलेशी अवस्था में निष्पीड़न करे । आठवे गुणस्थानवर्त्ती जीव दो प्रकार के होते हैं - एक उपशम श्रेणी वाले दूसरे क्षपक श्रेणी वाले। इस गुणस्थान से आत्मविकास के दो मार्ग हो जाते हैं। कोई आत्मा ऐसा होता है जो मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ और कोई क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है । इसमें से प्रथम मार्ग को उपशम श्रेणी और द्वितीय को क्षपक श्रेणी कहते हैं। जिस प्रकार आग को राख से ढँक देने पर वह दब जाती है लेकिन वायु के झोंके से वह पुनः प्रकट हो जाती है और ताप आदि कार्य करने लगती है; उसी तरह जो आत्मा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को उपशान्त करता है - दबाता है - उसके पुनः मोहनीय कर्म का उदय होता है और वह उदय आगे बढ़ने से रोकता है और नीचे गिराता है । उपशम श्रेणी वाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकता । वहाँ से उसको गिरना ही होता है । क्षपकश्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय कर देता है अतएव उसके पतन का सम्भव नहीं रहता है और वह आगे बढ़ता चला जाता है। ऐसा जीव दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान में चला जाता है और सदा के लिए अप्रतिपाती हो जाता है। यह उपशम और क्षपकश्रेणी का स्वरूप समझना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy