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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१४ ] [आचाराग-सूत्रम् संस्कृतच्छाया-उपेक्षस्व बहिश्च लोकं, स सर्वलोके ये केचन विद्वान्सः ( तेभ्योऽग्रणी ) अनुविचिन्त्य पश्य निक्षिप्तदण्डाः, ये केचन सत्वाः पलितं त्यजन्ति, नराः मृतार्चाः धर्मविदः इति ऋजवः प्रारम्भज दुःखमेतदिति ज्ञात्वा, एघमाहुः सम्यक्त्वदार्शनः, ते सर्वे प्रावादिकाः दुःखस्य कुशला परिज्ञामुदाहरन्ति, इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । शब्दार्थ-बहिया धर्म से बाहर रहे हुए । लोग पाखण्डी लोगों की ओर । उवेहि= उपेक्षा रखो। से वह उपेक्षा करने वाला। सव्वलोगंमि सारे लोक में। जे केइ जो कोई। विएण=विद्वान् हैं उनमें अग्रणी हैं । अणुवीइ बराबर विचार कर । पास देख कि। इणं दुक्खं इस दुख को। आरंभ आरम्भ से उत्पन्न हुआ। णच्चा जानकर । निक्खित्तदंडा आरम्भ का त्याग करने वाले । मुयच्चा-शरीर की विभूषा से रहित होते हुए। धम्मविउति-धर्म के रहस्य को जानने वाले । अंजू सरल स्वभावी । नरा मनुष्यादि । जे केइ सत्ता-जो कोई प्राणी। पलियं-कर्म को । चयंति छोड़ते हैं वही विद्वान् हैं । एवं इस प्रकार । संमत्तदंसिणो तत्त्वदर्शी। आहु-कहते हैं । ते सव्वे वे सभी । पावाइया-अवादी-तत्त्वदर्शी । इय कम्मं कर्म को । सव्वसो= सभी तरह से । परिण्णाय जानकर । दुक्खस्स दुख की । कुसला=चिकित्सा में कुशल होकर । परिएणय सावध के त्याग का । उदाहरंति-उपदेश करते हैं। भावार्थ हे प्रिय शिष्य ! धर्म के मार्ग से बाहर रहे हुए पाखंडियों की तरफ किसी प्रकार का लक्ष्य नहीं देना चाहिए और इस तरह जो वर्ताव करते हैं वे विद्वानों के शिरोमणि हैं । हे साधक मुनि! तू यह विचार पूर्वक देख कि आरम्भ को दुख का कारण जानकर सावद्य-प्रवृत्ति को त्याग कर, शरीर की शुश्रूषा की इच्छा न करके, धर्म के रहस्य को समझ कर सरल स्वभावी बनकर जो मनुष्य कर्मों को तोड़ते हैं वे सचमुच विद्वान् हैं । इसलिए तत्त्वदर्शीजन सभी तरह कर्मों के रहस्य को जानकर सभी तरह के दुखों के चिकित्सक बनकर सावद्य कर्मों के त्याग का सदुपदेश करते हैं। विवेचन-द्वितीय उद्देशक में मिथ्यावादियों का खण्डन किया गया है । मिथ्यामत का निकन्दन करके सूत्रकार अब साधक को यह उपदेश करते हैं कि हे साधक ! तू उन पाखण्डियों के प्रति किसी तरह का लक्ष्य मत दे और उनको धर्म से बहिर्भूत जानकर तू आत्माभिमुख बन । इस कथन से दो प्रकार के आशय निकलते हैं। प्रथम तो यह है कि साधक को आत्माभिमुख ही बनना चाहिए। उसे खण्डनात्मक प्रवृत्ति में विशेष भाग नहीं लेना चाहिए। क्योंकि विशेषरूप से खण्डनात्मक मार्ग का आश्रय लेने से दोषोत्पत्ति होने की सम्भावना रहती है। इससे राग-द्वेष की प्रवृत्ति को प्रबलता मिलती है अतएव साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह अनेकान्त-दृष्टि के द्वारा स्वरूप का निर्णय करे और आत्म-चिन्तन में ही मग्न रहे । दूसरा आशय यह ध्वनित होता है कि मिथ्यावादियों के संसर्ग का त्याग करना चाहिए। हिंसा में विश्वास रखने वाले मिथ्यावादी धर्म के सत्यस्वरूप से पराङ्मुख हैं। उनका संसर्ग होने से साधक के पतन की संभावना हो सकती है क्योंकि "संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति” संसर्ग से गुण और दोष उत्पन्न For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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