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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] [ ३०७ पवाइया चादियो ! किं भे=क्या आपको। सायं-सुख । दुक्खं अप्रिय है कि । असायं दुख अप्रिय है । समिया सम्यक् । पडिवण्णे यावि स्वीकार करने पर । एवं बूया उन्हें ऐसा कहना चाहिए । सव्वेसिं पाणाणं-सभी प्राणियों को। सव्वेसि भृयाणं सभी भूतों को। सव्वसिं जीवाणं सभी जीवों को। सव्वेसि सत्ताणं सभी सत्वों को। असायं-दुख । अपरिनिव्वाणं= अशान्ति करने वाला, अनिष्ट । महब्भयं महा भयंकर । दुक्खं अप्रिय है । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ। ___ भावार्थ-इस संसार में कोई श्रमण और ब्राह्मण सत्य और सनातन धर्म के विरुद्ध प्रलाप करते हैं। वे कहते हैं "हमने देखा है, गुरु आदि से सुना है, निश्चित रूप से जाना है, माना है और प्रत्येक दिशा में परीक्षा करके जाना है कि प्राण, भूत, जीव और सत्वों को मारने दबाने-आज्ञा करने, पकड़ने, दुखी करने और प्राणरहित करने में कोई दोष नहीं है" । वस्तुतः यह ( मिथ्या प्रलाप ) अनार्यों के ही वचन हैं। __ जो आर्य होते हैं वे तो इस तरह के स्थल पर यह कहते हैं कि हे वादियो ! तुम्हारा यह देखना, सुनना, मानना, निश्चित रूप से जानना सभी दृष्टि-बिन्दुओं से जांच करना यह सब दुष्ट-असत्य अहितकर है । तुम कहते हो कि "प्राण, जीव, भूत और सत्वों को मारने में कोई दोष नहीं है। परन्तु तुम्हारा यह कथन अनार्यों के वचन के तुल्य है । हम तो यह कहते हैं-बोलते हैं, प्ररूपणा करते हैं, प्रज्ञप्त करते हैं कि किसी भी प्राणी, जीव, भूत और सत्व को किसी भी प्रयोजन से मारना, दबाना, संताप देना, पकड़ना और प्राणरहित नहीं करना चाहिए । इस प्रकार वर्ताव करने में दोष नहीं है; यह वचन आर्य-पुरुषों का है। प्रत्येक मत के धर्मशास्त्रों में क्या २ कहा है यह भलीभांति जानकर प्रत्येक दर्शन के अनुयायियों से प्रश्न करते हैं कि हे परवादियो ! तुम्हें सुख अप्रिय है या दुख अप्रिय है ? सुख तो किसी को अप्रिय नहीं है । तुम्हें दुख अप्रिय लगता है तो सभी प्राणी, जीव, भूत और सत्वों को भी दुख महा भयंकर और अनिष्ट लगता है यह जानकर किसी को दुख न दो और अपने सामन ही अन्य के साथ वर्ताव करो। विवेचन-अहिंसा ही धर्म का प्राण है। अहिंसा के बिना कोई भी धर्म सच्चा धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्मों का उद्देश्य व्यक्ति और समष्टि की एकरूपता सिद्ध करना होता है । मनुष्य स्वार्थ के संकीर्ण दायरे को छोड़कर क्रमशः जाति, समाज, देश और विश्व के प्राणियों के साथ आत्मरूपता करना सीखे यही धमों का एकमात्र उद्देश्य होता है । अहिंसा के बिना यह उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। विश्व की शान्ति के लिए अहिंसा अनिवार्य तत्त्व है। जब तक दुनिया अहिंसा देवी की आराधना नहीं करेगी तब तक दुनिया में शान्ति नाम मात्र को भी नहीं रह सकती। एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर अक्रमण करना, रक्तपात होना, भयंकर महायुद्धों का लड़ा जाना, ये सभी हिंसा के कार्य हैं जिनसे विश्व-शान्ति सदा खतरे में ही For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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