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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६६] [आचाराङ्ग-सूत्रम् दर्शी सम्यक्त्वी-जनों के लिए कर्म-निर्जरा के कारण हो जाते हैं । जो स्त्री, चन्दन, पुष्पमाला इत्यादि कामियों के लिए कर्म-हेतु होने से आस्रव रूप हैं वे ही विरक्तात्माओं के वैराग्य का पोषण करने से परिस्रव-निर्जरा के स्थान हो जाते हैं । इसी तरह साधु-समाचारी, तपश्चरण इत्यादि निर्जरा के स्थान अशुभ अध्यवसायों के कारण और साता, रस और ऋद्धिगौरव आदि के कारण कर्म-बन्धन का कारण हो जाते हैं। अतएव कहा है किः यथा प्रकाराः यावन्तः संसारावेशहेतवः। तावन्तस्तद्विपर्यासान्निवाणसुखहेतवः ॥ अर्थात्-जितने प्रकार के और जितने संसार में परिभ्रमण के कारण हैं उतने ही प्रकार के और उतने ही उनको विपरीत रीति से लेने से मोक्ष-सुख के कारण हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जितने कर्मनिर्जरा के लिए संयम के स्थान हैं उतने ही कर्म-बन्धन के लिए असंयम के स्थान हैं। जिस प्रकार ज्वर-ग्रस्त व्यक्ति को शक्कर और दूध भी कटु मालूम होता है अथवा नीम के रस के पीने से जिसका मुँह कडुआ हो रहा है उसे शक्कर-मिश्रित दूध भी कटु लगता है उसी प्रकार राग और द्वेष के कारण जिसका हृदय कलुषित है, जो विषय-सुख के लिए लालायित है उसके अध्यवसाय अशुभ होने से उसकी समस्त क्रियाएँ संसार के लिए ही होती हैं । इसके विपरीत जो सम्यग्दृष्टि है, विषयसुख से पराङ्मुख है, जो पदार्थों के असली रहस्य को जानता है और जो वैराग्य से भरा हुआ है उसके लिए सभी क्रियाएँ मोक्षमार्ग की साधिकाएँ हैं। इस बात को समझने के लिए श्री स्थूलिभद्र मुनि का उदाहरण उपयोगी है । कोशा जैसी अनुपम लावण्यवती वेश्या के विलासगृह में लम्बे काल तक अहोरात्र रहने पर भी श्री स्थूलिभद्र मुनि निर्विकार रहे । वेश्या का विलासगृह कर्म-बन्धन का मुख्य स्थान है परन्तु वहीं रहकर उन मुनि ने अपने अखण्ड सञ्चारित्र की छाप उस अनुपम सुन्दरी वेश्या पर डाली और अपने कर्म के बन्धनों को तोड़ा। एक तरफ विलास का आकर्षक वातावरण, दूसरी ओर योगीश्वर की अडोलता । दोनों के द्वन्ध में योगीराज जीते। कैसे विलास पूर्ण वातावरण में रहकर स्थूलिभद्र निर्विकार रह सके इसका वर्णन इस श्लोक में किया गया है वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भिः रसैर्भोजनं, सौधं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यः वयः संगमः। कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगायादरात्, वन्दे तं युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलिभद्रं मुनिम् ॥ अर्थात्-अनुपम सुन्दरी वेश्या सदा जिनके स्वाधीन थी, (जिन पर अनुरक्त थी ) नाना रसों से युक्त स्वादिष्ट भोजन, विशाल अट्टालिका, सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर और भर यौवन अवस्था और इस पर वर्षा ऋतु का मादक घनघोर घटा वाला समय, इतने विलास के पोषक एवं विकारोत्तेजक वातावरण में रहकर भी जिन्होंने काम-वासना पर विजय प्राप्त की और जो अपने अखण्ड चारित्र-बल के द्वारा वेश्या को भी सन्मार्ग पर लाये उन योगीश्वर स्थूलिभद्र मुनि को नमस्कार करता हूँ। ऊपर के श्लोक से यह विदित हो जाता है कि श्री स्थूलिभद्र मुनि के सभी निमित्त विकार-वर्धक अतएव आस्रव के स्थान थे परन्तु उनका उपादान (चित्तवृन्ति) शुद्ध था अतएव उनके लिए वे ही भास्रव के स्थान संवररूप में परिणत हो गये । इसीलिए सूत्रकार फरमाते हैं कि 'जे आसवा ते परिसचा। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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