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सम्यक्त्व नाम चतुर्थ अध्ययन
-द्वितीयोदेशक( मिथ्यात्व - विध्वंसन )
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प्रथम उद्देशक में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया गया है। मिध्यात्व का जब निरसन किया जाता है तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । मिध्यात्व का निरसन मिध्यात्व को जाने बिना नहीं हो सकता अतएव इस उद्देशक में मिथ्यावादियों के विचारों को दिखाकर उनका युक्तिपूर्वक खण्डन किया गया है। सम्यग्वाद का मण्डन किया गया है ।
सम्यग्वाद के विचार में मोक्ष और संसार तथा उनके कारणों का विचार करना अति आव श्यक है क्योंकि यह विवेक ही सम्यक्त्व की नींव है। संसार का कारण आस्रव है और मोक्ष का कारण निर्जरा है । स्रव के ग्रहण से बन्ध भी जाना जा सकता है और निर्जरा के ग्रहण से संवर का भी ग्रहण हो जाता है । संवर का कार्यरूप मोक्ष भी फलित हो जाता है । यह मोक्ष ही सबका साध्य है । संसार और मोक्ष और उसके कारणभूत आस्रव और निर्जरा का स्वरूप समझना सम्यक्त्व का अनिवार्य अंग है अतएव उद्देशक के प्रारम्भ में आसव और निर्जरा की चर्चा करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं
जे श्रासवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते श्रासवा, जे यणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा, एए पए संबुज्झमाणे लोयं च sererr भिसा पुढो पवेइयं ।
संस्कृतच्छाया- य एवास्रवा त एव परिस्रवा, य एव परिस्रवा त एवास्रवाः, ये एव नावा तएवापरिस्रवा, ये परिस्रवा ते अनास्रवा, एतानि पदानि संबुध्यमानः लोकञ्चाज्ञयाऽभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम् ।
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शब्दार्थ — जे = जो | आसवा-कर्म-बन्धन के हेतु हैं । तेत्रे | परिस्सवा=कर्म-निर्जरा के हेतु भी हो सकते हैं । जे = जो । परिस्सवा= कर्म- निर्जरा के हेतु हैं । ते=वे । श्रासवा= कर्मबन्धन के कारण भी हो सकते हैं। जे= जो । अणासवा = त्रतादि जो श्रास्रव के कारण नहीं है ।
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परिस्वा कभी कभी संवर के कारण भी नहीं होते हैं। जे=जो । अपरिस्वा = आस्रव के के कारण हैं । ते अण्णासवा = वे कभी २ श्रास्रव के कारण नहीं भी होते हैं। एए पए इन पदों को । संबुज्झमाणे = पूरी तरह समझने वाले । लोयं च = और लोक को । श्रामाए = तीर्थङ्करों की
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