SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [२६१ वे ही अशुभ पर अमनोज्ञ हो सकते हैं और जो अभी अशुभ और अमनोज्ञ हैं वह कभी शुभ और मनोज्ञ हो सकते हैं। यह सब पुद्गलों की विचित्र परिणति का परिणाम है । अतः सञ्चा साधक बाह्य पदार्थों में पासक्त नहीं होता है। वह तो संसार को एक नाट्यशाला समझता है जिसमें हास्य, रुदन, सौन्दर्य, भयंकरता, प्रेम, निर्दयता, स्वाभाविकता और कृत्रिमता इत्यादि विविध दृश्य दिखाई देते हैं । जैसे नाटक के दृश्य बदलते रहते हैं उसी तरह ये दृश्य भी एक के बाद एक पलटते रहते हैं और नवीन नवीन रूप दिखाई देते हैं । सच्चा दर्शक इन विविध दृश्यों में तन्मय नहीं हो जाता। वह समनता है कि यह तो नाटक का दृश्य है जो क्षण में ही बदलने वाला है। बाह्य पदार्थों के परिणामों का कारण और उनके स्वभावों का विश्लेषण करके उसमें से शिक्षा लेने के लिए वह सदा आतुर रहता है। जो साधक दुनिया के पदार्थों में आसक्त हो जाता है वह आत्मभान और विवेक खो देता है। मोह जीवन के लिए प्रगाढ़ अन्धकार है। वह मोहान्धकार जड़-चेतन के विवेक-दीप के बिना दूर नहीं हो सकता अतएव साधक बाह्य पदार्थों की क्षणिकता और आत्मा की शाश्वत अवस्था का सदा चिन्तन करता रहे ताकि वह पदार्थों की आसक्ति से बच सके । मोहासक्त प्राणी कदापि अहिंसक नहीं हो सकता। वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य हिंसा का भागी होता है । अतएव अहिंसक बनने वाले को मोह का त्याग करना चाहिए। अहिंसा जीवन में तभी उतरती है जब पदार्थों की आसक्ति कम होती है। इसलिए दृश्य पदार्थों में विरक्ति धारण करने के लिए सूत्रकार ने फरमाया है। दुनिया अनादिकाल के मिथ्यात्व (भूठी भ्रमणा) के कारण गलत मार्ग पर चली जा रही है। उसे श्रात्म-तत्त्व का भान ही नहीं है । उसके लिए बाह्यपदार्थ ही सर्वस्व हैं । अतएव बाह्यपदार्थों के लिए दुनिया में मारामारी चल रही है। सच्चा साधक दुनिया की रफ्तार में न बह जाय इसलिए सूत्रकार उसे सचेत करते हैं कि दुनिया की देखादेखी न कर । दुनिया की रफ्तार का अन्धानुकरण न कर । भेड़ियाधसान मत बनो और अपनी बुद्धि के प्रकाश का उपयोग करो । जो व्यक्ति सदा दूसरों का अनुकरण ही करता है उसकी विचारशक्ति मारी जाती है । अतएव वह अपने सुख के मार्ग का विचार तक नहीं करता है और दुनिया जिस ओर चली जा रही है उसी ओर बह जाता है। इस प्रकार संसार के प्रवाह में बहता हुआ वह अपने सुख के मार्ग से वञ्चित रहता है। संसार की देखादेखी करने से मोह का पोषण होता है । साधक को मोह घटाना है । यह अपने स्वयं के विचार-बल से ही घट सकता है । अतएव दूसरों का अन्ध-अनुकरण नहीं करना चाहिए। दुनिया राग-द्वेष के भँवर में पड़ी हुई है इसलिए पारगामी साधक को दुनिया की देखादेखी नहीं करनी चाहिए। जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स को सिया ? दिटुं सुयं मयं विण्णायं जं एवं परिकहिज्जइ । समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाइं पकप्पंति अहो अराश्रो य जयमाणे धीरे सया श्रागयपणणाणे पमत्ते बहिया पास अपमत्ते सया परिकमिजासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-यस्य नास्तीयम् ज्ञातिः, अन्या तस्य कुतः स्यात् ? टं, श्रुतं, मतं, विज्ञात यदेतत्परिकथ्यते । शाम्यन्तः प्रलीयमानाः पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति । अहश्व रात्रिं च यतमानो धीरः सदा भागतप्रज्ञानः, प्रमत्तान् बहिर् पश्य, अप्रमत्तः सन् सदा पराक्रमेया इति ब्रामि । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy