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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन प्रथमदेशक ] [ २८५ उट्टिए वा-धर्म-श्रवण के लिए तैयार हुए को । अनुट्ठिएसु वा नहीं तैयार हुए को । उवट्ठिएसु वा = साक्षात् उपस्थित हुए जीवों को । अणुवट्ठिएसु वा अनुपस्थित जीवों को । हिंसा से निवृत्त हुए को । अणुवरयदंडेसु वा = हिंसा से नहीं निवृत्त हुए को । उपाधि वालों को । गोवहिएस वा = उपाधि से रहितों को । त्यागियों को । पवेइए = प्रतिपादित किया गया है । उवरयदंडेसु वा = सोव हिएसु वा = संजोगरएसु वा = रागियों को । और । एयं = यह धर्म । संजोग तयं = सच्चा है। तहा चेयं = जैसा भगवान् ने कहा वैसा ही है। अस्सि च =और इसी जिन-प्रवचन में । एयं =यह | पवुच्चइ = कहा गया है । 1 भावार्थ – हे जम्बू ! मैं कहता हूँ कि भूतकाल में जो तीर्थंकर भगवान् हो गये हैं, वर्तमान में तीर्थंकर हैं और भविष्य में जो तीर्थंकर होंगे वे सब इस प्रकार कहते हैं, बोलते हैं, समझाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राणी, ( बेइन्द्रियादि) सभी भूत (वनस्पति), सभी जीव (पंचेन्द्रिय) और सभी सत्वों ( पृथ्वीकायादि ) को दण्डादि से नहीं मारना चाहिए, उन पर श्राज्ञा नहीं चलानी चाहिए, उन्हें दास की भांति अधिकार में नहीं रखना चाहिए, उन्हें शारीरिक व मानसिक सताप नहीं देना चाहिए और उन्हें प्राणों से रहित नहीं करना चाहिए । यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है । संसार के दुखों को जानकर जगज्जन्तुहितकारी भगवान् ने संयम में तत्पर और अतत्पर ( श्रवण के लिए उद्यत और अनुद्यत) उपस्थित और अनुपस्थित, मुनियों और गृहस्थों, रागियों और त्यागियों, भोगियों और योगियों को समान भाव से यह उपदेश प्रदान किया है । यही सत्य है, यह तथारूप है और ऐसा धर्म इस जन-प्रवचन में ही कहा गया है । विवेचन-तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । अतएव सम्यक्त्व का निरुपण करने के पहिले तत्त्व क्या है यह बताना आवश्यक है। तीर्थंकर देवों का उपदेश ही तत्त्व है । यह कहने पर प्रश्न हो सकता है कि तीर्थंकरों का उपदेश तो सागर के समान विस्तृत, गम्भीर और साधारण जनों के द्वारा दुर्गम्य है अतः साधारण जनों के लिए हितकर, श्रुत-सागर का सार, श्रागम - महोदधि के मन्थन का मक्खन रूप तत्त्व क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है। अतीत काल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं क्योंकि काल अनादि है, भविष्य काल अनन्त है। इसलिए भविष्य में अनन्त तीर्थंकर होवेंगे और वर्त्तमान काल में प्रज्ञापक की अपेक्षा नियत संख्या न होने से जघन्य और उत्कृष्ट द्वारा यह कहे जा सकते हैं। इसमें अढ़ाई द्वीप में उत्कृष्ट १७० एक सौ सित्तर और जघन्य बीस तीर्थंकर होते हैं। पाँच महाविदेह में एक एक विदेह ये बत्तीस क्षेत्र हैं इस प्रकार १६० एक सौ साठ क्षेत्र हुए प्रत्येक में एक एक तीर्थंकर हो सकते हैं। पाँच भरत तथा पाँच ऐखत में दस तीर्थंकर हो सकते हैं यों एक साथ एक सौ सित्तर देवाधिदेव हो सकते हैं । जघन्य अपेक्षा से पांच महाविदेह में से प्रत्येक महाविदेह में चार चार तीर्थंकर होते हैं यों बीस हुए। भरत-ऐरवत में सुषमादि आरे में तीर्थंकर नहीं होते । महाविदेह में सदा रहते हैं इस तरह कम से कम बीस तीर्थंकर सदा विद्यमान रहते हैं । इस तरह अतीतकाल में, वर्त्तमान काल में और भविष्य काल के जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, और होंगे उद For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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