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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८०] [आचाराङ्ग-सूत्रम् पूर्व की तरफ ही रखना चाहता है लेकिन होता यह है कि जब तक उँगली से वह दबा रहता है तबतक पूर्व में रहता है और उँगली के उठते ही वह उत्तर में चला जाता है। कितने ही वर्षों तक इस तरह प्रयत्न किया जाय तो भी वह कॉटा उत्तर में ही रहेगा। जब तक उस काँटे के उत्तर में ही रहने का मूल कारण न जान लिया जाय और दूर न किया जाय तब तक वह काँटा उत्तर में ही रहेगा। जब उसका मूल कारण शोधते हुए मालूम हो कि इसमें लोहचुम्बक है जो काँटे को उत्तर की ओर आकर्षित करता है, तो लोहचुम्बक को मिटा देने से काँटा इच्छित दिशा में रह सकता है। इसी प्रकार जब तक किसी चीज के मूल कारण का पता न लगे और वह कारण दूर न हो तब तक किसी चीज़ का नाश नहीं हो सकता 1 श्रतएव दुख का नाश करना है तो पहिले उसके मूल कारणों को.जानो और उनका उच्छेद करो तो दुख का नाश होगा। अपने किए हुए पूर्वकृत ही दुखों के कारण हैं अतएव उनका नाश करना चाहिए। जो पूर्वकृतकर्मों का क्षय कर देते हैं वे सर्वज्ञ बन जाते हैं और सभी तरह के प्रपञ्चों से मुक्त हो जाते हैं। उनके लिए संसार-व्यवहार नहीं होता। वे संसार से परे हो जाते हैं। वे अपना साध्य सिद्ध कर चुकते हैं । वे शुद्धबुद्ध हो जाते हैं। -उपसंहारकषाय ही भव-भ्रमण का मूल है इसलिए जितने अंश में कषायों की शान्ति है उतने ही अंश में त्याग की सफलता है । कषायों के शमन से आत्म-शुद्धि होती है और आत्म-शुद्धि की पराकाष्ठा से सर्वज्ञता प्राप्त होती है । पूरी निर्भयता, सत्य की अखंड आराधना एवं कषायों का शमन ये ही वीर के लक्षण हैं । श्रद्धा से अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है । सत्पुरुषों के मार्ग में तन्मयता होना ही श्रद्धा है । श्रद्धावान का कल्याण अधिक सरलता से हो सकता है। कषाय-शमन, सर्वज्ञता, श्रद्धा, एवं वीरता का स्वरूप इस उद्देशक में बताया गया है। मूल सार, कषाय-शमन करने का है। अतएव मुमुक्षुओं को आत्मोन्नति के लिए कषायों का शमन अवश्यमेव करना चाहिए । इसी से साधना सफल हो सकती है। ऐसा श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा। 卐 इति तृतीयमध्ययनम् ) TELELELELELELETE For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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