SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७० ] [आचाराग-सूत्रम् जब तक सर्वज्ञता प्राप्त न हो तब तक साधक को अपनी साधना में सतत सावधान रहना चाहिए। ऐसा न हो कि बीच में ही प्रमाद में फंसकर साध्य को भुला दिया जाय । जो मंजिल तय करनी है उस पर सतत सावधानी से आगे प्रयाण करते रहना चाहिए। मार्ग के दृश्यों के प्रलोभन में अथवा तस्कर आदि के डर से विचलित न होना चाहिए और साध्य की ओर कदम बढ़ाते रहना चाहिए। साधुवृत्ति में संसार के प्रलोभन और इन्द्रियाँ और मनरूपी लुटेरे इसको विचलित करने के लिए आते हैं। उस समय सावधानी से सदा जागृत रहकर मंजिल तय करनी चाहिए । उस समय आत्मा की जरासी असावधानी, जरा-सा प्रमाद सारे कार्य पर पानी फेर देता है। इसीलिए सूत्रकार ने सदा अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया है। सूत्रकार फरमाते हैं कि प्रमादी को सर्वतः और सर्वत्र भय रहता है। प्रमाद और भय सदा सहचारी हैं। जहाँ प्रमाद है वहाँ भय है और जहाँ भय है वहाँ प्रमाद है। प्रमाद का अर्थ है आत्मा की स्खलना। आत्मा की स्खलना-त्रटि जहाँ हैं वहाँ निर्भयता कैसे टिक सकती है? जहाँ असावधानी होती है वहाँ भय रहता ही है यह सब को अनुभूत है ही। अपराधी सदा सशङ्कित रहता है यह सभी का अनुभव है। इसके विपरीत जो सदा जागत है उसे किसी तरह का भय नहीं है। अथवा प्रमादी से सभी को भय रहता है क्योंकि वह दूसरों की हिंसा कर सकता है और अप्रमादी से संसार के किसी भी जीव को भय नहीं रहता है । क्योंकि वह संयम के द्वारा सभी को अभय प्रदान करता है। अथवा 'भयं' शब्द का अर्थ कर्म हो सकता है। कर्म सबसे अधिक भयङ्कर हैं अतएव भय शब्द से कर्म का ग्रहण हो सकता है। इस पक्ष में अर्थ यह होगा कि प्रमादी सभी तरह से कर्मों को ग्रहण करता है और अप्रमादी किसी तरह कर्मों को नहीं ग्रहण करता है। प्रमादी सर्वतः-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से कर्मों को एकत्रित करता है। द्रव्य से वह सभी आत्म-प्रदेशों से कर्मों के पुद्गलों को ग्रहण करता है। क्षेत्र से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधो दिशा में रहे हुए कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन दिशाओं में सभी दिशाओं का ग्रहण समझना चाहिए ! काल से प्रति समय कर्म के पुद्गलों का ग्रहण करता है और भाव से हिंसादि के द्वारा कों को एकत्रित करता है। प्रमादी को इस लोक और परलोक में दोनों जगह भय है। इसके विपरीत अप्रमादी को किसी प्रकार के कर्म का भय नहीं रहता है और इहलोक और परलोक में वह भयमुक्त होता है । यह समझकर सर्वज्ञता प्राप्त होने तक सदा अप्रमत्त रहना चाहिए। जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे । संस्कृतच्छाया-य एकं नामयति स बहूनपि नामयति, यो बहून् नामयति स एक नामयति । शब्दार्थ-जे-जो । एगं-एक को । नामे=नमाता है। से वह । बहुं अनेकों को। नामे=नमाता है । जे जो । बहुं अनेकों को । नामे=नमाता है । से वह । एगं=एक को । नामे= नमाता है। भावार्थ-जो एक को नमाता है वह अनेक को नमाता है और जो अनेक को नमाता है वह एक को नमाता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy