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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५६ ] [श्राचारान-सूत्रम् कई लोग आत्मा को कर्त्ता तो मानते हैं लेकिन स्वयं भोक्ता नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि श्रात्मा स्वयं सुख-दुख नहीं भोगता है वरन् ईश्वर कर्म का फल देता है । ईश्वर-प्रेरित होकर ही जीव नरक या स्वर्ग में जाता है। यह मान्यता प्रतीति के विरुद्ध है। जो कार्य करता है वही फल का भोक्ता होना चाहिए । कर्ता की क्रिया ही फल देने वाली समझनी चाहिए । जो विष का भक्षण करता है वह मरता है । इसमें विष ही मारक हुआ न कि ईश्वर । अगर ईश्वर मारक है तो विष निरर्थक हुआ। शराबी शराब पीता है और नशा ईश्वर चढ़ाता है और मिरची खाकर धूप में खड़े रहने वाले को ईश्वर प्यास लगाता है यह मानना संगत नहीं है । वस्तुतः शराब में ही नशा चढ़ाने का गुण है और मिरची और धूप में ही प्यास लगाने का गुण है । जीव के निमित्त से ये पदार्थ अपना गुण दिखाते हैं । अत: पदार्थों की शक्ति माननी चाहिए । इसी तरह जीव का है अतः वह स्वयं इसका भोक्ता होना चाहिए । ___ यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि चोर चोरी करता है लेकिन वह स्वयं उसका बुरा फल भोगने को तैयार नहीं होता, उसे अपनी क्रिया का दण्ड देने के लिए राजा की आवश्यकता रहती है इसी तरह जीव कार्य तो कर लेता है किन्तु उनका फल स्वयं भोगना नहीं चाहता अतएव ईश्वर उसे दण्ड देता है । यह प्रश्न योग्य नहीं है क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन जब वह कर्म कर चुकता है तब वह उस कर्म के अधीन हो जाता है इसलिए भले ही वह फल न भोगना चाहे तो भी वह कर्म उसे फल देता ही है । जैसे एक मनुष्य मिरची खाने के लिए स्वतंत्र है। उसकी इच्छा हो तो वह मिरची खावे अथवा न खावे लेकिन जब वह मिरची खा चुकता है तब तो वह उसके गुण दोष के अधीन हो जाता है। मिरची खा चुकने पर वह चाहे कि मुझे प्यास न लगे तो ऐसा नहीं हो सकता । मिरची अपना गुण बतावेगी ही। तात्पर्य यह है कि कर्म कर चुकने पर कर्त्ता कर्म के अधीन हो जाता है। इसलिए जीव जो भी शुभ या अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे इच्छा से या अनिच्छा से अवश्यमेव भोगना पड़ता है। सतएव यह सिद्ध हुआ कि आत्मा ही कर्म का कर्ता है, और कर्म-फल का भोक्ता है । जो कर्मों का नाश कर देता है वह मुक्तात्मा है। ___-पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिभ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स प्राणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ, सहियो धम्ममायाय सेयं समणुपस्सइ । संस्कृतच्छाया-हे पुरुष ! प्रात्मानमेवाभिनिगृह्य, एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि, हे पुरुष ! सत्यमेव समभिजानीहि, सत्यस्याज्ञयोपस्थित: मेधावी मारं तरति, सहितो धर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति । शब्दार्थ-पुरिसा हे पुरुष ! अत्ताणमेव अपने आपका। अभिणिगिज्म-निग्रह कर । एवं ऐसा करने से । दुक्खा दुख से । पमुञ्चसि-छूट जायगा । पुरिसा हे जीव । सच्चमेव सत्य का ही। समभिजाणाहि-सेवन करो । सच्चस्स सत्य की । प्राणाए-आज्ञा में । उवट्ठिए= उपस्थित । से मेहावी वह बुद्धिमान् । मारं संसार को । तरह-तैरता है । सहितो-ज्ञानादि युक्त हो । धम्ममादाय यथार्थ धर्म को ग्रहण कर । सेयं-कल्याण । समणुपस्सइ-देखता है For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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