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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५० ] [श्राचाराङ्ग-सूत्रम् - महर्षि साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह इस को समझ कर कर्मों का धुनन करके उन्हें क्षय कर दे। प्रकारान्तर से भी इस सूत्र का अर्थ किया जाता है वह इस प्रकार है । सूत्र में आये हुए 'अवरेण' पद का संस्कृत रूप "अपरेन' होता है। न विद्यते परः-प्रधानोऽस्मादित्यपरः अर्थात्-जिससे और कोई प्रधान न हो वह अपर । सर्व-प्रधान संयम ही है अतएव 'अपर' का अर्थ संयम है। जो संयम से संस्कारित हैं वे पूर्व के भोगे हुए विषयसुखोपभोग का स्मरण नहीं करते हैं और रागद्वेष से मुक्त होकर अनागत देवाङ्गनादि के भोगों की आकांक्षा भी नहीं करते हैं । वे इसका स्मरण नहीं करते हैं कि इस जीव ने पहिले ये विषयोपभोग भोगे थे और आगे ये प्राप्त होंगे अथवा क्या सांसारिक सुख प्राप्त होगा ? एक-एक रागद्वेषरहित केवली अथवा चौदह पूर्वधारी आदि लोकोत्तर पुरुष फरमाते हैं कि अनादि काल से यह जीव कर्मपुद्गलों से बँधा हुआ है और सुख-दुख का वेदन करता आ रहा है। यदि यही कर्म-परम्परा चालू रही तो भविष्य में भी यह जीव सुख-दुख का वेदन करता रहेगा । रागद्वेषादि के कारण कर्म से बन्धा हुआ जीव उसके विपाकों का अनुभव करता है अथवा भूतकाल में जैसे विपाक उदय में आये हैं वे ही भविष्य में भी फल देंगे, यदि रागद्वेष जन्य कर्म-परम्परा चालू रही। इसके विपरीत सर्वज्ञ की वाणी का रसास्वादन करने से जिसने संसार अतिक्रान्त किया वह इसी तरह करने से आगामी जन्म में भी संसार अतिक्रान्त करेगा। जो रागद्वेष रहित तत्त्वदर्शी हैं वे न तो अतीत विषय-सुखों का स्मरण करते हैं और न अनागत देवाङ्गनाओं के भोग की आकांक्षा करते हैं। यह समझ कर पवित्र आचार वाला महर्षि साधक अतीत और अनागत विषय-सुखों का स्मरण न करे अपितु कर्मों का क्षय करने में पुरुषार्थ करे। का अरई, के प्राणंदे ? इत्थंपि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिचज प्रालीनगुत्तो परिव्वए। - संस्कृतच्छाया–काऽरतिः क प्रानन्दः ? अत्रापि अग्रहश्चरेत्, सर्व हास्यं परित्यज्यालीनगुप्तः परिव्रजेत । ..... शब्दार्थ-का अरई-दुख क्या है। के आणंदे और सुख क्या है ? इत्थंपि इस हर्ष शोक के विषय में । अग्गहे-गृद्ध न होकर । चरे-संयम में विचरे । सव्वं सभी प्रकार का । हासं-कुतूहल । परिचज त्याग कर। आलीनगुत्तो मन, वचन और काया का गोपन करके । परिवए संयम का पालन करे। भावार्थ-योगी मुनि के लिए क्या दुख और क्या सुख हो सकता है ? वह तो हर्ष और शोक से परे होता है । हर्ष-शोक के प्रसंगों में वह अनासक्त रहता है । साधक सर्व प्रकार के हास्य, कुतूहल इत्यादि छोड़कर, मन, वचन और काया को कूर्म की तरह गुप्त करके सदा संयम का पालन करता रहे । विवेचन-कर्म-क्षपण के लिए तत्पर हुए, शुक्ल एवं धर्मध्यान के अभ्यासी महायोगीश्वर और संसार के सुख-दुखों के विकल्प से परे रहने वाले साधक को क्या फल प्राप्त होता है वह इस सूत्र में बताया गया है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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