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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ] [ २४३ देह का विलास जिस प्रकार आत्मघातक है उसी तरह शरीर के प्रति अति लापरवाही भी जीवन के रस को चूसने वाली हो सकती है । अतएव संयम के मार्ग में आत्म-रक्षा और धैर्य को सन्मुख रखकर देहरूपी साधन व्यवस्थित, सुगठित, नियमबद्ध और कार्य-साधक बने इसतरह उसका निर्वाह करना संयम का ही अंग है । साध्य, साधक की योग्यता और साधन का सदुपयोग इस त्रिपुटी का समन्वय करने का सूत्रकार ने सूचित किया है। विरागं रूवेहिं गच्छिजा महया खुड्डएहिं य, प्रागइं गइं परिणाय दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से न छिन्जइ, न भिजइ, न डज्मइ, न हम्मद च णं सव्वलोए। संस्कृतच्छाया-विरागं रूपेषु गच्छेत् महता तल्लकेषु च, आगतिं गतिं परिज्ञाय द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्या, स न छिद्यते, न भिद्यते, न दह्यते न हन्यते केनचित् सर्वस्मिल्लोके । शब्दार्थ-महया अतिमोहक, दिव्य । खुड्डएहि तथा सामान्य । रूवेहि-रूपों में । विरागं गच्छिज्जा=विरक्त रहे । आगई-आगमन को। गइं-गमन को। परिणाय जानकर । दोहि विदोनों ही । अंतेहि-राग और द्वेष से । अदिस्समाणेहिं नहीं देखा जाता हुआ । से= वह साधक । सव्वलोए सारे लोक में । कंचणं-किसी के भी द्वारा । न छिज्जइन छेदा जाता है । न भिजइ न भेदा जाता है। न डज्झइ न जलाया जाता है । न हम्मइन मारा जा सकता है। भावार्थ-साधक अति मोहक दिव्य अथवा सामान्य किसी भी प्रकार के रूप में आसक्ति न करे और विरक्त रहे । गति आगति को जानकर ( संसार के स्वरूप को समझ कर ) जो राग और द्वेष से दूर रहता है वह सारे लोक में किसी के द्वारा मी न छेदा जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है और न मारा जा सकता है । _ विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में शरीर की प्रतिपालना करने का कहा गया है । उसका उद्देश्य यह नहीं है कि सदा रसमय पदार्थों का उपभोग किया जाय । उसका उद्देश्य तो मात्र प्राणसंधारण का ही और प्राण-संधारण का उद्देश्य भी तत्त्वज्ञान ही है। तत्त्वज्ञान का उद्देश्य पुनः पुनः होने वाले जन्म-मरण को रोकने का है । संयमी पुरुष खाने के लिए नहीं जीते हैं परन्तु जीने के लिए खाते हैं। जीवन का उद्देश्य भी पुनः पुनः जीवन न हो यही पुरुषार्थ करना है। कहा भी है: आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्छ, स्यादाहारः प्राणसंधारणार्थम् । प्राणा धायास्तत्त्वजिज्ञासनाय तत्त्वं ज्ञेय येन भूयो न भूयात् ।। अर्थात्-आहार के लिए अनिन्दनीय कार्य करे। श्राहार प्राण-धारण के लिए है। प्राणों का धारण करना तत्त्वज्ञानार्थ है और तत्त्वों का ज्ञान इसलिए करे कि पुनः जन्म-मरण न करना पड़े। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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