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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३२ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ - इचैव एतम - लोभवश वध परितापनादि का। आसेवित्ता = सेवन करके भी । एगे - एक एक भरतादि । समुट्टिया = संयम में उद्यमवंत हुए। तम्हा = इसलिए | नाणी = ज्ञानी साधक । तं = प्राप्त कामभोगों को । निस्सारं = सार रहित । पासिय= जानकर । बिइयं = एकबार जिनका त्याग कर दिया है उनकी इच्छा करके द्वितीय दोष मृषावाद का । नो सेवे = सेवन न करे । उववायं = जन्म | चवणं=मरण को । गच्चा = जानकर | माहणे - मुनि । अणणं संयममार्ग में । चर = विच - रण करे | से= वह | न छणे = किसी जीव की हिंसा न करे । न छणावए = हिंसा न करावे । छतं नापुजाण = हिंसा करते हुए को अनुमोदन न दे । पयासु = स्त्रियों में । श्ररए = आसक्त न हो । नंदि= सांसारिक आमोद-प्रमोद से । निव्विद = घृणा करें । अणोमदंसी - ज्ञानादि उत्तम वस्तुओं को पाकर | पाहिं कम्मेर्हि = पापकर्मों से | निसरणे = दूर रहे | 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भावार्थ-लोभ के वश वध, परितापन और परिग्रह का सेवन करने के पश्चात् भी ( भान होने पर उस मार्ग को त्याग कर ) भरत - चक्रवर्ती के समान कतिपय प्राणी संयम के मार्ग में उद्यमवन्त हुए । इसलिये हे साधको ! जिन बुद्धिमानों ने भोगों को निस्सार जानकर छोड़ दिये हैं वे उन्हें पुनः ग्रहण करने की इच्छा करके मृषावाद का सेवन न करें। संसार के प्रत्येक प्राणी के पीछे जन्म और मरण का लट्ठ लगा हुआ है अर्थात् यह जन्म अशाश्वत है ऐसा जानकर संयम मार्ग को अंगीकार करो । अर्थात् किसी भी जीव को न सताओ, अन्य के द्वारा पीड़ा न पहुँचाओ और पीड़ित करते हुए को अनुमोदन न दो । हे साधको ! स्त्रियों में आसक्ति न लाकर वासना - जन्य सांसारिक सुख का तिरस्कार करो। साथ ही ज्ञान एवं संयमादि गुणों को प्राप्त करके पापकर्मों से दूर रहो । विवेचन - इस सूत्र में प्रमादियों को भी आश्वासन दिया गया है। प्रयत्न करने से उनका भी उद्धार संभव है यह कहकर सूत्रकार ने प्रमत्त श्रात्माओं को निराशा के अन्धकार में डूबने से बचाया है और उनके सामने चमकता हुआ नक्षत्र रख दिया है। प्रायः ऐसा होता है कि जब प्राणी यह देख लेता है कि मैं तो बहुत पापी हूँ, मेरा तो उद्धार हो ही नहीं सकता तो वह निश्शंक होकर पापकर्म करता रहता है क्योंकि उसके सामने उसके सुधार का कोई मार्ग नहीं रहता। ऐसी अवस्था न हो, प्रमत्त आत्माएँ अपने उद्धार की आशा से निराश न हो जाँय इसके लिए उन्हें आश्वासन देते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि वध, 'परिताप और परिग्रह करने पर भी आत्मभान होने पर उस मार्ग से विमुख होने पर एक-एक भरत चक्रवर्ती ' सरीखे व्यक्ति संयम के मार्ग में उद्यमवन्त हुए । उन्होंने अपना उद्धार कर लिया इसलिए घबराने की आवश्यकता नहीं । आत्मग्लानि का अनुभव करने की जरूरत नहीं । तुमने पाप किये हैं तो भी तुम्हारा उद्धार संभव है । तुम पाप करते हुए जिस मार्ग पर चल रहे हो केवल उसका त्याग कर दो; बस तुम्हारा भी कल्याण हो जायगा । भरत चक्रवर्ती छः खंड के अधिपति थे तो भी उन्हें उसमें आत्म संतोष नहीं प्राप्त हुआ और जब तृष्णा की बेड़ियों को तोड़कर मुक्त हुए तभी सुख के अधिकारी बने । भरत चक्रवर्ती छ: खंड के स्वामी थे, उनके प्रारम्भ समारम्भ का पार न था तो भी जब उन्होंने तृष्णा का बन्धन तोड़ा तो उनका उद्धार हो गया। इसी तरह भले ही अब तक तुमने बहुत पाप किये हों परन्तु अब यदि तुम उस • मार्ग से निवृत्त होकर संयम में दृढ़ता रखते हो तो तुम्हारा भी कल्याण अवश्यंभावी है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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