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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२६ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् का दृष्टा बनकर । विवित्तजीवी - रागद्वेषरहित समभाव से जीने वाला । उवसंते - शान्त | समिए = समिति युक्त । सहि = ज्ञानयुक्त । सया जए= हमेशा अप्रमत्त होकर । कालकंखी - स्वाभाविक कालक्रम से | परिव्वए=संयम के मार्ग में वीरता से आगे बढ़ता है । 1 भावार्थ - इस प्रकार मूलकर्म और अकर्म के विवेक को जानने वाला मुनि मरण से मुक्त हो जाता है । ऐसा मुनि संसार के दुखों से डरता हुआ, लोक में सर्वश्रेष्ठ मोक्ष का दृष्टा बनकर रागद्वेषरहित समभाव से जीवन बिताता हुआ, इन्द्रियों और मन को शान्त करता हुआ, समितियों से युक्त, ज्ञानादिगुण युक्त, सदा अप्रमत्त होकर पुरुषार्थ करता हुआ, तथा पंडितमरण को चाहता हुआ संयम के मार्ग में वीरता बढ़ता है । विवेचन - पूर्ववर्ती सूत्र में मूलकर्म और अकर्म का विवेक समझाया गया है । प्रस्तुत सूत्र में मूल और कर्म का विवेक करने वाले को क्या लाभ होता हैं यह स्पष्ट करते हैं । जिस व्यक्ति ने मूल और अग्रकर्म का विवेक समझ लिया है वह मरण से मुक्त हो जाता है । संसार के समस्त दुखों में मरण का भय और मरण सबसे भयङ्कर दुख है । इस सबसे अधिक दुख एवं भय रूप मरण को वह साधक जीत लेता है जो मूलाग्रकर्म का विवेचक होता है । कर्म-भेद के ज्ञाता साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता है । जिसने कर्म का भेद जान लिया है और आत्मा के निष्कर्मत्वरूप को देख लिया है वह मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। अर्थात् उसे नवीन आयुष्य का बन्धन नहीं होता । संसार में जन्म-मरण परस्पर अविनाभावी है। जन्म है तो मरण भी है और मरण है तो जन्म भी है । जन्म के बिना मर नहीं और मरण के बिना जन्म ही नहीं । यहाँ मरण से छूटने का कहा है परन्तु मरण जन्म से विनाभावी है अतः यह अर्थ होता है कि कर्म-भेद का ज्ञाता जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है । जन्म-मरण का ही नाम संसार है अतएव वह संसार से मुक्त हो जाता है। जो कर्म-भेद का ज्ञाता है वह संसार को भयरूप मानता है । संसार को भयरूप मानने का मतलब यह है कि वह सांसारिक सुखोपभोग को आत्मा के लिए भयङ्कर दुखों को उत्पन्न करने वाले समझता है अतएव सदा उनसे डरता हुआ उनसे दूर रहता है । सांसारिक विषयों को संसार कहा गया है यह आधार और आधेय के सम्बन्ध से समझना चाहिए। विषयभोगों का आधार संसार है और विषयभोग आधेय हैं। आधेय की भयङ्करता से आधार भी भयंकर समझा जाता है। जिस प्रकार चोरों की पल्ली स्वयं भयंकर नहीं होती किन्तु चोरों के कारण वह भी भयंकर हो जाती है उसी तरह विषयों के कारण संसार भयंकर कहा गया है। कर्मभेद का ज्ञाता विषयजन्य सुखों से सदा डरता रहता है इसीलिए ar faosर्मदर्शी हो जाता है । मूल कर्म का भेद समझ लेने से जीव की स्वाभाविक अभिलाषा कर्मों से मुक्त होने की और मोक्ष प्राप्त करने की होती है । अतः कर्म-विवेक हो जाने पर उस आत्मा का लक्ष्य मोक्ष हो जाता है । वह कर्मबन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए अधीर हो उठता है। मोक्ष का स्वरूप उसके नयनों में समाया रहता है। लोक में मोक्ष ही उसे सारभूत तत्त्व दिखाई देता है । इस प्रकार वह मोक्ष का दृष्टा बन जाता है । जिस श्रात्मा ने कर्मभेद का रहस्य समझ लिया है वह निष्कर्मा बनना चाहता है और मोक्ष उसका लक्ष्य हो जाता है। जिस व्यक्ति का लक्ष्य मोक्ष हो जाता है तो उसका जीवन अनोखा ही हो जाता है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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