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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२२] । प्राचाराग-सूत्रम् भावार्थ-इसलिये सच्चा तत्वदर्शी साधक अपने परम ध्येय मोक्ष को जानकर और नरकादि के दुखों को जानकर पापकर्म नहीं करता है। विवेचन-पूर्व सूत्रों में अज्ञान और अज्ञानी की संगति को अनर्थों की जड़ कहा गया है तथा उनका त्याग करने का उपदेश दिया गया है। इसमें उपसंहार करके यह दिखाया गया है कि सच्चा तत्ववेत्ता पापकर्म नहीं करता है। तत्वज्ञान का फल ही यही है कि हिंसादि से विरति की जाय । जो तत्वज्ञान विरति रूप में नहीं परिणमता है वह सच्चा तत्वज्ञान ही नहीं है वह तोमात्र विवाद रूप पुस्तकीय ज्ञान ही है। जिस व्यक्ति को सचा तत्वज्ञान हो गया है वह फिर अपने लक्ष्य को समझ कर पापकर्म से निवृत्त हो जाता है । सच्चे तत्वदर्शी का साध्य परमपद-मोक्ष-होता है। वह उसी लक्ष्य के अनुसार प्रवृत्ति करता है। वह तत्ववेत्ता यह भी समझता है कि पापकर्मों का परिणाम बड़ा अनिष्ट होता है । नरक श्रादि योनियों में इसके कारण भयंकर यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। पाप से अनेक भयंकर हानियाँ हैं। इन सब बातों को जानकर वह साधक पापकर्म में कभी प्रवृत्त नहीं होता । यही सच्चा तत्वज्ञान है । ऐसा तत्वज्ञानी पुरुष मोक्ष को साध्य मानकर और नरकादि के कारणों को जानकर पापकर्म नहीं करता है। सूत्रकार आगे स्वयं पापकर्म की व्याख्या का स्पष्टीकरण करते हैं: अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं निकम्मदंसी। संस्कृतच्छाया-अग्रञ्च मूलञ्च त्यज धीर ! परिच्छित्वा निष्कर्मदशी । शब्दार्थ-धीरे हे धीर पुरुषो ! अग्गं च अग्रकर्म को और । मूलं च मूलकर्म को । विगिच आत्मा से अलग करो । पलिच्छिदिया शं इस तरह कर्मों को तोड़कर । निकम्मदंसी-तुम निष्कर्मा बन जाओगे। भावार्थ-हे पीर पुरुषो ! तुम मूलकर्म और अग्रकर्म के स्वरूप को समझ कर उनको अपनी आत्मा से पृथक् करो । जब तुम इस तरह कर्मों को तोड़ दोगे तो तुम कर्मरहित बनकर अपनी आत्मा के यथार्थ स्वरूप को देख सकोगे । विवेचन-पूर्व के सूत्रों में यह बताया जा चुका है कि संसार की समस्त उपाधियों का कारण कर्म ही है । कर्म ही के कारण संसार की विविधता और विचित्रता दिखाई देती है। संसारप्रवाह का कारण कर्म ही है। कमों के उपचय से ही भव-परम्परा बढ़ती है और इस तरह संसार-स्रोत का प्रवाह बहता रहता है । कर्म ही के कारण संसार और मोक्ष का भेद होता है। निश्चय दृष्टि से मुक्तात्मा और संसारी जीवात्मा का स्वरूप एक समान है। इनमें भेद करने वाला कर्म ही है। सिद्धों की श्रात्मा कर्म-कलंक से सर्वथा मुक्त है और संसारवर्ती जीवात्मा कर्मों से लिप्त है। संसारी जीव जब कर्म के बन्धनों को तोड़ देता है तो वह भी मुक्तात्मा हो जाता है । मुक्तात्मा ही परमात्मा है। अन्य दर्शनकारों ने मुक्तात्मा के ऊपर भी एक ईश्वर की कल्पना की है परन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि मुक्तात्मा सभी बन्धनों से मुक्त होने से फिर उन पर अन्य किसी का स्वामित्व कैसे हो सकता है ? अगर किसी अन्य का स्वामित्व For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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