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२१८]
भौतिक यन्त्रसाधनों की वृद्धि के साथ-साथ विश्वशान्ति खतरे में पड़ती जा रही है। चारों तरफ स्वार्थ, साम्राज्य और शोषण का बोलबाला हो रहा है जिसका कटु परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि भयंकर नरसंहार हो रहा है और दुनियाँ खून से लथपथ हो रही है। आज संसार में सर्वत्र अशान्ति की ज्वाला धधक रही है और रणचण्डी भयंकर अट्टहास करती हुई ताण्डय कर रही है। इसका एकमात्र कारण अहिंसा के परम-कल्याणकारी मार्ग को भुला देना है।
____संसार का छोटे से छोटा प्राणी भी सुख का अभिलाषी है। सभी प्राणी सुख पाने के लिए ही प्रवृत्रि कर रहे हैं। मानव की तो बात जाने दीजिये-कीड़े मकोड़े, पशु-पक्षी और सूक्ष्म कीटाणु भी एक मात्र सुख चाहते हैं । स्वर्ग का स्वामी इन्द्र भी सुख चाहता है और एक सूक्ष्म प्राणी भी सुख चाहता है । सभी प्राणी सुख के इच्छुक और दुख के द्वेषी हैं । दुख किसी को प्रिय नहीं लगता। सभी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता । तिर्यश्च और नारकी के जीव भयंकर वेदनाएँ सहते हैं तदपि वे जीना चाहते हैं, मरना नहीं। ऐसी अवस्था में हमें यह विचारना चाहिए कि जैसे सुख हमें प्रिय है वैसे ही दूसरों को भी प्रिय है
और जैसे दुख हमें अप्रिय है वैसे ही दूसरों को भी अप्रिय है । यह विचार कर किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए । यही कल्याण का मार्ग है। “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' अर्थात्-जो बातें हमें दुखरूप मालूम होती हैं उनका वर्ताव हमें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए । इस तत्त्व की तरफ हमारी आत्मा जितनी प्रगति कर सकेगी उतनी ही हमारी मुक्ति होती जायगी।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि सारा संसार जीवों से संकुल (व्याप्त) है । संसार के प्रत्येक हलन-चलनादि व्यवहार में हिंसा अनिवार्य है तो अहिंसा व्यवहार्य कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि अहिंसा का आराधन करने के लिए बुद्धि की अहिंसकता आवश्यक है । अगर हमारी वृत्ति-बुद्धि अहिंसक है तो अनिवार्य हिंसा के होने पर भी तज्जन्य बन्ध के भागी नहीं होते । इसका कारण यह है कि अहिंसक-भावना वाले की दृष्टि सम्यग होती है, वह अहिंसा को अपना लक्ष्य मानता है परन्तु जो हिंसा अनिवार्य हो जाती है उसे वह लाचारी मानता है और हिंसा को पापरूप मानकर उस पाप से भयभीत रहता है। उसकी श्रद्धा में अहिंसा व्याप्त रहती है अतः वह अहिंसक हो सकता है। अहिंसक-वृत्ति वाला व्यक्ति सार्थक और निरर्थक दोनों प्रकार की हिंसाओं से बचता है। जो भी हिंसा लाचारी से हो जाती है उसके लिए भी उसे पश्चात्ताप होता है । यह स्मरण रखना चाहिए कि एक ही कृत्य तीव्रभाव, मन्दभाव आदि से किया जाने पर विभिन्न फल देने वाला होता है। तत्वार्थ सूत्र में कहा है किः
तीब्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्ताविशेषः । अर्थात्-तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और शक्ति के भेद से कर्म के आस्रव में भेद होता है । तात्पर्य यह है कि तीव्रभाव से किया जाने वाला पाप अधिक अशुभ कर्म-बन्ध का कारण है और मन्दभाव से किया जाने वाला पाप कम अशुभ कर्म के बन्ध का कारण है। इसी प्रकार "मैं इस प्राणी को मारूँ' इस संकल्प से जान-बूझकर हिंसा करने वाला अधिक पाप का भागी है और अनजान में अगर पापकर्म हो जाय तो वह कम पाप का भागी है।
तात्पर्य यह है कि वृत्ति में अहिंसकता रहनी चाहिए।हमारी वृत्ति-भावना जितनी अधिक अहिंसक होगी उतनी ही अधिक अहिंसा व्यवहार्य हो सकेगी।
अहिंसा का राजमार्ग सीधा मोक्ष में ले जाने वाला मार्ग है। यही मार्ग परम कल्याणकारी है ऐसा समझ कर बुद्धिमान् प्राणी को इस मार्ग पर प्रवृत्ति करनी चाहिए। तत्त्वदर्शी साधक पापकों से
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