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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६६] [प्राचाराग-सूत्रम् उपर्युक्त कथन का यह अर्थ नहीं है कि सभी को एक ही बात का एक ही तरह का-उपदेश दिया जाय । उपदेश तो श्रोता की योग्यता और पात्रता के अनुसार दिया जाना चाहिए। ऐसा न करने से लोक-कल्याण का उद्देश्य पूरा नहीं होता । जो व्यक्ति जिस भूमिका पर है उसे उसके अनुकूल उपदेश देना हितकर हो सकता है। उपर्युक्त कथन का मतलब यह है कि श्रीमन्त और गरीब को निस्पृहभाव से तथा दोनों पर समानभाव रखते हुए उपदेश देना चाहिए । पुण्यवानों पर राग और तुच्छ पर द्वेषभाव करना मुनिधर्म से प्रतिकूल है। उसके लिए पुण्यवान् और तुच्छ समान है। अथवा 'पुण्णस्स' इस पद का अर्थ पूर्ण करने पर यह अर्थ होता है कि जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि आदि से पूर्ण को जैसी भावना से उपदेश दे वैसी ही भावना से तुच्छ को भी दे । कहा भी है: ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो जात्यन्वयबलान्वितः ।.. तेजस्वी मतिमान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् ॥ जो ज्ञान, प्रभुता, धन, जाति और बल-सम्पन्न हो, जो तेजस्वी हो, बुद्धिमान हो और ख्यातिप्राप्त हो उसे पूर्ण समझना चाहिए । इससे विपरीत हों उन्हें तुच्छ समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु जिस अनुग्रह-बुद्धि से और प्रत्युपकार की आशा के बिना रंक आदि को उपदेश देता है उसी अनुग्रहबुद्धि से ही चक्रवर्ती आदि को भी उपदेश देता है । जिस दृष्टि से चक्रवर्ती को उपदेश देता है उसी दृष्टि से तुच्छ को भी उपदेश देता है । सच्चा उपदेशक अरक्तद्विष्ट होकर उपदेश देता है। उपदेश देते समय सामने वाले की भूमिका और पात्रता जानना आवश्यक है। अगर श्रोता स्थूलबुद्धि का हो तो उसे स्थूल बातों से समझाना चाहिए और मतिमान हुआ तो उसे उस तरह समझाना चाहिए । उपदेशक को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखकर तदनुकूल उपदेश देना चाहिए। द्रव्यक्षेत्रादि को देखे बिना उपदेश देने से अनिष्ट परिणाम आ सकता है यही बात सूत्रकार अगले सूत्र में स्पष्ट करते हैं: अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थं पिजाण सेयं ति नत्थि । केयं पुरिसे कं च नए ? एस वीरे पसंसिए जे बद्धे परिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु। संस्कृतच्छाया-अपि च हन्यादनाद्रियमाणः अत्रापि जानीहि श्रेय इति नास्ति । कोऽयं पुरुषः कञ्च नतः ? एष वीरः प्रशंसितः यो बद्धान् परिमोचयति उर्ध्वमस्तियन्दिक्षु । शब्दार्थ-अवि य=सम्भव है कि । अणाइयमाणे=राजादि अपमान समझ कर क्रोधित हो । हणे मारने लगे। इत्थं पि-उपदेश देने की विधि को जाने बिना उपदेश देने में । सेयं नत्थि-कल्याण नहीं है । ति जाण=ऐसा समझो । केयं पुरिसे यह पुरुष कौन है ? कं च नए= किस देव को नमस्कार करता है ऐसा जानकर उपदेश दे । उड्ढं-ऊर्ध्व । अहं नीची । तिरियं= तिरछी । दिसासु-दिशाओं में रहे हुए । बद्ध कर्म-बन्धनों से बँधे हुए जीवों को । जे-जो। परिमोयए-मुक्त करता है । एस वह । वीरे-बीर । पसंसिए प्रशंसा-पात्र है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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