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[ श्राचारान-सूत्रम्
(४) निर्वेदिनी
यत्र संसारभोगाङ्ग -स्थिति- लक्षण --वर्णनम् । वैराग्यकारणं भव्यैः सोक्का निर्वेदिनीकथा ॥
अर्थात् — जहाँ संसार, भोग और अंगादि की स्थिति का वर्णन करके वैराग्य की वृद्धि की जाती है वह कथा निवेदिनी कथा है। कर्मों के शुभाशुभ फलों का निरूपण करके वैराग्य उत्पन्न करना निर्वेदिनी कथा है । इस लोक और परलोक के शुभाशुभ कर्मफलों की अपेक्षा इसके चार प्रकार हैं: - ( १ ) इस लोक में किए हुए दुष्ट कर्म इस भव में दुखदायक होते हैं। इस जन्म में किये हुए शुभ कार्य इस जन्म में सुखरूप फल प्रदान करते हैं इस प्रकार कहना । ( २ ) इस लोक में किये हुए शुभाशुभ कर्मों का परलोक में शुभाशुभ फल प्राप्त होता है - ऐसा प्रतिपादन करना ( ३ ) परलोक में किये हुए शुभाशुभ कर्म इस लोक में शुभाशुभ फल देते हैं ऐसा व्याख्यान करना (४) पूर्वभव में किये हुए शुभाशुभ कर्म श्रागामी भव में शुभाशुभ फल देने वाले होंगे, ऐसा प्रतिपादन कर के वैराग्य पैदा करना । ऐसा कथन करना निर्देदिनी कथा है।
इस प्रकार विकथाओं से बचकर, और सर्व प्रकार से योग्य बनकर धर्म-कथा द्वारा जैन शासन की प्रभावना करते हुए अन्य को सन्मार्ग पर लाना चाहिए ।
जेसी सेणारा मे, जे श्रारामे से अन्नदंसी ।
संस्कृतच्छाया - यो ऽनन्यदर्शी सोऽनन्यारामः, योऽनन्यारामः सोऽनन्यदर्शी ।
शब्दार्थ — जे = जो | श्रणन्नदंसी परमार्थ दृष्टा है । से वह । श्रणणणारामे=मोक्षमार्ग के सिवाय अन्यत्र रमण नहीं करता है । जे जो । अण्णा रामे= मोक्षमार्ग के सिवाय अन्यत्र रमण नहीं करता है । से वह । अणन्नदंसी - परमार्थ दृष्टा है ।
भावार्थ – जो यथावस्थित पदार्थों को जानने वाला परमार्थदर्शी है वह मोक्षमार्ग के अतिरिक्त अन्यत्र रमण नहीं करता है । जो मोक्षमार्ग के सिवाय अन्यत्र रमण नहीं करता है वह वस्तुतः परमार्थ - दर्शी है ।
विवेचन -- इसके पूर्ववर्ती सूत्र में सर्वतोमुखी ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् धर्मकथा करने का कहा गया है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि सर्वतोमुखी ज्ञान का स्वरूप क्या है जिसे जानकर ही उपदेश दिया जा सकता ? इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है । यथार्थ सर्वतोमुखी ज्ञान का अर्थ-यथावस्थित पदार्थों स्वरूप को जानना है । जो पदार्थों के स्वरूप को तद्रूप से भलीभांति जानता है वह सम्यग्दृष्टि है । जो सम्यग्दृष्टि होता है - जो तीर्थङ्कर प्ररूपित प्रवचनों का गीतार्थ होता है वह मोक्षमार्ग के अतिरिक्त अन्यत्र रमण नहीं करता है । जिसकी दृष्टि का विष दूर हो जाता है वह व्यक्ति आत्म-स्वरूप को भलीभांति समझ सकता है और उसी में आनन्द की अक्षयनिधि का दर्शन करता है । आत्म-स्वरूप से भिन्न तत्त्वों को पर-तत्त्व समझ कर वह उनमें आसक्त नहीं होता है और उन बाह्यतत्त्वों से हर्ष या विषाद का अनुभव नहीं करता है । श्रात्म-रमरण करने में ही उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है। आत्मा में ही सुख का
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