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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६२] [आचारान-सूत्रम् रोग नहीं टिक सकता। जब दुखों के कारणों का त्याग कर दिया जाता है तो दुख नहीं ठहर सकते हैं। कारणों के चले जाने से वे स्वयं चले जाते हैं। कोई प्राणी अगर अग्नि को शान्त करना चाहता है तो उसको अग्नि के कारणों को दूर करना चाहिए । परन्तु अज्ञानवश अग्नि को शान्त करने के लिए यदि उसमें ईन्धन डालता जाय तो वह शान्त होगी या प्रज्वलित होगी ? विषयान्ध और मोहान्ध प्राणी भी दुखों की अग्नि की शान्ति के लिए कामभोग-रूपी ईन्धन का सेवन करते हैं इससे दुख-रूप अग्नि शान्त होगी या प्रज्वलित होगी ? वह अज्ञान-वश दुख के सच्चे कारणों को ही नहीं समझता है और उसके दुख की परम्परा बढ़ा लेता है। अतः आप्त-पुरुषों के वचनों को प्रमाण मानकर उन्होंने जो दुख के कारण बृताए हैं उनसे निवृत्ति करनी चाहिए तभी सुख और शान्ति का अनुभव हो सकता है । अन्यथा कदापि नहीं। मनुष्यों को यह विचारना चाहिए कि वस्तुतः दुखों की जड़ क्या है ? किन कारणों से दुख इत्पन्न होते हैं ? अगर मनुष्य अपनी विचारबुद्धि से काम ले तो वह सरलता से जान सकता है कि वह अपने ही कर्मों द्वारा दुखी हो रहा है । वह अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। मनुष्य के अशुभ कर्त्तव्य ही उसके दुखों के जनक हैं । अतः अपने अशुभ कर्मों के परित्याग से ही वह दुख से मुक्त हो सकता है । ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के बन्धन के कारणों को ज्ञ-परिज्ञा द्वारा जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा त्याग देना चाहिए । कर्मास्रव के कारणों में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। त्रिकरण और त्रियोग द्वारा कर्मबन्धन के हेतुओं का त्याग करना ही सुख का मूल कारण है। "इह कम्मं परिन्नाय सव्वसो' इस पद का ऐसा भी अर्थ किया गया है कि कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर ही उपदेश देना ठीक होता है। प्रथम स्वयं वस्तु-तत्त्व को और कमों को भलीभांति समझे तदनन्तर सर्वथा योग्य होकर उपदेश देना ही योग्य कहा जा सकता है। जो कुशल साधक कर्मास्रव के कारणों को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्यागता है वही अन्य मनुष्यों को दुख के कारण समझा कर उनका परिहार करने का उपदेश दे सकता है। जो व्यक्ति स्वयं उपदिष्ट तत्वों का आचरण करता है वही दूसरों को सन्मार्ग पर लाने में समर्थ बनता है। जो व्यक्ति सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके ही रह जाता है और तदनुसार स्वयं प्रवृत्ति नहीं करता है तो उसका प्रतिपादन करना प्रभाव-शन्य होता है। उसका अन्य जनों पर प्रभाव नहीं पड़ सकता है । जो व्यक्ति जैसा कहता है वैसा ही आचरण करता है वही अन्य पर प्रभाव डाल सकने में समर्थ होता है। इसलिए पहले सभी तरह का ज्ञान प्राप्त करके और परिहार्य तत्वों का परित्याग करके जो उपदेश देता है वस्तुतः वही उपदेश देने का अधिकारी है । सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने वाले व्यक्तियों को ही उपदेश या धर्म-कथा करने का अधिकार है। .. धर्मकथा चार प्रकार की है:-(१) आक्षेपणी (२) विक्षेपणी (३) संवेदनी (४.) निर्वेदनी। (१) आक्षेपणी श्राक्षेपणी कथा का स्वरूप टीका की टिप्पणी में इस प्रकार बताया है स्थाप्यते हेतुदृष्टान्तैः स्वमतं यत्र पण्डितैः । स्याद्वादध्वनिसंयुक्तं सा कथाऽऽक्षेपणी मता ॥ अर्थात्-हेतु और दृष्टान्त द्वारा स्वमत का जो मण्डन किया जाता है तथा स्याद्वादमय वचनों द्वारा जो धर्मोपदेश दिया जाता है वह आक्षेपणी कथा है । श्रोताओं के हृदय में से राग, द्वेष और मोह For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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