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उसे अनेक प्रकार की यातनाओं और व्यथाओं को सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वीतराग की आज्ञा कठिन है परन्तु उसका फल त्रिकाल कल्याणकारी और सर्वथा हितकारी है। जिस प्रकार कल्याणकारी और सर्वथा हितकारी स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए रोगी को कड़वी औषधि का पान करना पड़ता है और वह कड़वी औषधि सेवन करता है तो ही रोग से मुक्त हो सकता है। अगर रोग के समय स्वाद के वश होकर कड़वी औषधि का सेवन न करे तो वह रोग-मुक्त नहीं हो सकता। ठीक इसी तरह विभाव-दशापन्न जीव जब तक कठिन मालूम देने वाले संयम का सेवन न करे वहाँ तक वह विभाव-दशा से मुक्त नहीं हो सकता । इसलिए विवेकी पुरुषों का यह कर्तव्य है कि कठिन प्रतीत होने वाली वीतराग की आज्ञा का भी यथाविधि पालन करे ताकि अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त कर सके और विभावदशा से पिण्ड छूटे । तात्पर्य यह है कि वीतराग की आज्ञा के आराधन में मोक्ष का आराधन है ।
जो व्यक्ति तीर्थकरों की आज्ञा का पाराधक नहीं होता वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र से रिक्त होता है। वह तत्त्वज्ञान से वञ्चित रहता है। वह अनुभवशन्य और अपूर्ण रहता है। जिसने संसार के विविध तत्त्वों का विविध दृष्टिबिन्दुओं से अवलोकन किया हो और जगत् के पदार्थों, अवयवों और घटना-चक्रों का जिसने सूक्ष्मरीति से अनुभव किया हो वही सच्चा ज्ञानी कहा जा सकता है। जो वीतराग की आज्ञा से विपरीत चलता है वह स्वच्छन्दाचारी इस प्रकार के अनुभव से शून्य होता है। इसलिए जब कोई व्यक्ति उससे किसी प्रकार का प्रश्न करता है तो वह ज्ञानशून्य होने से प्रत्युत्तर नहीं दे सकता है और बीलता हुआ ग्लानि, संकोच और डर का अनुभव करता है । अगर वह ज्ञानादि समन्वित भी हुआ तो भी श्राचार के अभाव से यथातथ्य प्ररूपणा नहीं करता हुआ स्वयं भी डूबता है और अन्य को भी डुबाता है। अपना आचरण शुद्ध न होने से वह शुद्ध प्ररूपणा करते हुए संकोच करता है और ग्लानि का अनुभव करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति आज्ञा का आराधक है वह आचार-सम्पन्न होने की वजह से शुद्ध प्ररूपणा करता हुआ संकोच नहीं करता है। कषायरूपी महाविष के लिए औषधि के समान वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला प्राणी यथार्थ ज्ञानी और यथार्थ अनुष्ठान करने वाला होने से सम्यक् प्ररूपणा करता है।
जो वीतराग की आज्ञा का आराधक होकर यथार्थज्ञानी तथा यथार्थ क्रिया करने वाला होता है वही कर्मों का विदारण करने में समर्थ होता है। कर्म का विदारण करने से ही वह सच्चा वीर कहलाता है । जो व्यक्ति संसार के बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों का त्याग करता है वही वस्तुत: प्रशंसनीय है। धन, धान्य, सोना, चांदी, माता-पिता पत्नी आदि का संयोग बाह्य संयोग कहलाता है और राग-द्वेष
आदि का या इनके कार्यरूप आठ प्रकार के कर्मों का संयोग श्राभ्यन्तर संयोग कहलाता है । बाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों प्रकार के ममत्व का जो त्याग करता है वही सच्चा त्यागवीर अमर कीर्ति और शाश्वत यश को प्राप्त करता है । प्राप्त तीर्थक्करों द्वारा भी उसकी गुणगाथा गायी जाती है । ऐसा पुरुष ही कर्मबन्धनों से मुक्त होकर सिद्ध बनता है।
इस प्रकार लोकसंयोग का त्याग करना और वीतराग की आज्ञा का यथाविधि अाराधन करना यही सचा त्यागमार्ग है । यही मुमुक्षुओं का आचार है। यही मोक्ष में ले जाने वाला मार्ग हैं। इसीसे अपने चरम लक्ष्य की सिद्धि है। जो इस वीतराग के बताये हुए मार्ग पर विघ्नबाधाओं की परवाह किए बिना अविरल गति से बढ़ता रहता है वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर अवश्य कृतकृत्य हो जाता है।
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