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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८० ] [आचाराग-सूत्रम् शब्दार्थ-~-सुहट्ठी-सुख का अभिलाषी । लालप्पमाणे=सुख के लिए दौड़ धाम करता हुआ । सएण-अपने । दुक्खेण हाथ से उत्पन्न किए हुए दुख से । मूढे=मूढ बनकर । विप्परियासमुवेइ दुखी होता है । सएण अपने किये हुए । विप्पमाएण-प्रमाद से । पुढो वयं पकुव्वइव्रतों का भंग करता है, अथवा विचित्र अवस्थाओं को भोगता है । जंसिमे जिन अवत्थाओं में ये । पाणा आणी । पव्वहिया अत्यन्त दुखी रहते हैं । पडिलेहाए यह बात जानकर । नो निकरणाए= पर पीड़ाकारी कोई काम न करे । एस-यही। परिन्ना=परिज्ञा-विवेक । पवुच्चइ कही गई है। कम्मोवसंती इसीसे कर्मों का क्षय होता है । ___ भावार्थ-सुख का लोलुपी और सुख के लिए दौड़धाम करने वाला अज्ञानी जीव अपने ही हाथ से उत्पन्न किए हुए दुख से मूढ बनकर विशेष दुखी होता है और अपने ही किए हुए प्रमाद के कारण व्रतनियमों का भंग करता है या संसार की विचित्र दशाओं का अनुभव करता है जिन दशाओं में प्राणी अत्यन्त दुखी होते हैं । इस बात को भलीभांति समझ कर दूसरों को पीड़ा देने वाली कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । यही परिज्ञा (सच्चा विवेक) कही गई है। इसी परिज्ञा से क्रमशः कर्मों का क्षय होता है। विवेचन-इस सूत्र में सांसारिक सुख-लिप्सु प्राणियों की विपरीत दशा का चित्र खींचा गया है। जो प्राणी सुख के यथार्थ मूल को खोजे बिना सुख के लिए दौड़धाम करता है वह सुख को नहीं पाता है और बदले में एकान्त दुख प्राप्त करता है। जिस प्रकार जो प्राणी, "तिलों में तैल होता है; बालुका में नहीं" इस बात को समझे बिना अगर बालुका से तेल निकालने का प्रयत्न करता है तो वह तैल तो नहीं पाता है वरन् व्यर्थ परिश्रम के खेद का अनुभव करता है और दुखी होता है। उसी प्रकार जो प्राणी सुख के मूल कारणों को नहीं जानता हुश्रा केवल कामभोगों से सुख पाने की अभिलाषा रखता है वह सुख तो नहीं पाता है बल्कि बड़ा भारी दुख मोल ले लेता है। जिस प्रकार कस्तूरी-मृग अपनी ही नाभि से निकलने वाली सुगन्धी के मूल को नहीं जानता है और उस सुगन्धी पदार्थ को पाने के लिए वन में चौकड़ियाँ भरता हुआ इधर उधर भागता है और दुख प्राप्त करता है लेकिन वह नहीं जानता कि इस सुगन्ध का मूल कारण मैं स्वयं हूँ। यह गंध जिसके पीछे मैं लटू हो रहा हूँ-मेरी ही है । मुझ में ही इसका उद्भव है। आखिर नतीजा यह होता है कि वह अज्ञानी मृग अपनी ही सुगंध को बाहर से प्राप्त करने में असमर्थ होता है और बहुत दौड़धाम करके अन्त में थक कर दुखी होता है । ठीक इसी तरह मृग के समान अज्ञानी जीव अपनी आत्मा में रहे हुए अनन्त सुख के सौरभ को नहीं जानते हैं और बाह्य-धनादि पदार्थों में सुख को ढूँढते हैं और समझते हैं कि इन पौद्गलिक पदार्थों में सुख रहा हुआ है । ऐसासमझ कर वे उन पदार्थों से सुख पाने के लिए दौड़धाम करते हैं । परन्तु वे बाल-जीव यह नहीं समझते कि बाह्य पदार्थों से सुख पाने का प्रयत्न, पानी को मथकर मक्खन प्राप्त करने के मनोरथ के समान है । जो वस्तु जहाँ हो नहीं सकती उसे उस स्थान पर ढूँढने से क्या हाथ आ सकता है ? पानी का मंथन करने से हाथ दुखाने के अतिरिक्त और क्या हाथ आने वाला है ? ठीक इसी तरह धनादि से सुख की आशा से बाल जीव दौड़ना, परदेशों में रहना, भूख-प्यास सहना आदि शारीरिक, चापलूसी करना, दीन शब्द बोलना आदि वाचिक और चिन्ता आदि मानसिक कष्ट उठाते हैं For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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