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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् प्राययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाएइ, उड्ढं भागं जाइ, तिरियं भागं जाई । गड्डिए लोए ऋणुपरियट्टमाणे संधिं विदित्ता इह मचिएहिं एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संस्कृतच्छाया— श्रायतचक्षुः लोकविदर्शी लोकस्याधो भागं जानाति ऊर्ध्व भागं जानाति तिर्यग्भागं जानाति । गृद्धः लोकोऽनुपरिवर्त्तमानः सन्धिं विदित्वा इह मर्त्येषु, एष वीरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचयति । शब्दार्थ — प्रययचक्खू - दीर्घदर्शी । लोगविपस्सी - संसार की विचित्रता को जानने वाला | लोगस्स = लोक के । अहोभागं = नीचे के भाग को । जाणइ जानता है । उड़दं भागं ऊर्ध्व भाग को । जाइ=जानता है । तिरियं भागं जाणइ = तिरछे भाग को जानता है । गड़िढए विषयों में आसक्त | लोए=जीव । अणुपरियट्टमाणे = बार-बार संसार में परिभ्रमण करते हैं । इह मच्चिएहिं = इस मनुष्य जीवन में | संधि = सुयोग्य अवसर को । विइत्ता = जानकर विषयों से दूर रहता है । एस वीरे = वही शूरवीर | पसंसिए - प्रशंसनीय है । जे बद्धे= जो संसार के बन्धनों में बँधे हुए को । पडिमोय = मुक्त करता है । भावार्थ - जो दीर्घदर्शी और संसार के विचित्र स्वरूप को जानने वाले हैं वे लोक के नीचे, ऊँचे और तिरछे भाग को जानते हैं । ( अर्थात् - जीव इन भागों में किन २ कारणों से उत्पन्न होते हैं यह बात जान सकते हैं ) विषयों में आसक्त बने हुए प्राणी बारम्बार संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । इसलिए मनुष्य जीवन सरीखा स्वर्ण अवसर प्राप्त कर जो विषयों से दूर रहते हैं वे ही शूरवीर प्रशंसा के पात्र हैं और ऐसे ही पुरुष संसार के बन्धनों में जकडे हुए अन्य जीवों को भी बाह्य और आभ्यन्तर • बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं । विवेचन - इस सूत्र में सूक्ष्म अवलोकन बुद्धि का सूचन किया गया है। जो प्राणी दीर्घदर्शी होता है वह ऐहिक और पारलौकिक लाभ और हानि को जान सकता है। सूक्ष्मदर्शी प्राणी मात्र वर्तमान को ही नहीं देखता है लेकिन भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल का विचार करता है। दीर्घदर्शी प्राणी यह समझता है कि कामभोग इस लोक और परलोक दोनों जगह दुख देने वाले हैं और जो इसका त्याग करता है वह उभयन शान्ति - सुख का अनुभव करता है। वह दीर्घदर्शी प्राणी लोक के स्वरूप को भी भलीभाँति जानता है । संसार की विविधता और विचित्रता का वह ज्ञाता होता है । संसार में एक ही पदार्थ किसी व्यक्ति को इष्ट लगता है वही दूसरे को अनिष्ट मालूम होता है। एक को जो मित्र मालूम होता है वही दूसरे को प्रतीत होता है। एक जगह हर्ष के बाजे बजते हैं और दूसरी जगह रुदन की करुण चीत्कार दुश्मन है । ये सब संसार की विचित्रताएँ हैं । दीर्घदर्शी प्राणी इन सभी विचित्रताओं के रहस्यों का ज्ञाता होता । वह जानता है कि क्यों प्राणी दुखी होते हैं ? क्यों सुखी होते हैं ? नीचे लोक में क्यों जन्म लेते हैं ? ऊर्ध्व लोक में किन कारणों से पैदा होते हैं ? तिरछे लोक में प्राणी किन कारणों से उत्पन्न होते हैं ? इस For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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