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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोदेशक ] [ १५५ करनी चाहिए। जो समय को पहचान कर तदनुसार प्रवृत्ति करता है वह सरलता से संयमयात्रा का निर्वाह कर लेता है। बलश:-अपनी शक्ति को देखकर तदनुसार प्रवृत्ति करने वाला बलज्ञ है। तात्पर्य यह है कि अपने में जितनी शक्ति है उसको बिना छिपाते हुए संयम में लगाना चाहिए। शक्ति होते हुए उसका गोपन करना माया कहलाती है अतः विवेकी साधु अपनी शक्ति को बिना छिपाये शक्ति अनुसार तपश्चर्या आदि क्रियाएँ करता है। सूत्र में "बालगणे" ऐसा पाठ है । इस पाठ में दीर्घ कहा गया है सो छान्दसत्व की वजह से समझना चाहिए। मात्र:-अनगार को यह भी जानना आवश्यक है कि कौनसी वस्तु कितने प्रमाण में अपने उपयोग में आ सकती है । अपने लिए आवश्यक तमाम वस्तुओं की मात्रा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। उदाहरण की तौर पर आहार को ही लीजिए । साधु को यह जान लेना चाहिए कि मुझे इतनी मात्रा का आहार पर्याप्त होगा। अगर साधु अपनी मात्रा न जाने तो कभी तो आवश्यकता से अधिक और कमी आवश्यकता से भी कम आहार आने से दोषों की सम्भावना रहती है। इसके विपरीत जो प्रमाण (मात्रा) जान लेता है वह ऐसे दोषों से बच जाता है अतः मात्रा का ज्ञान होना भी आवश्यक है।। खेयन्ने-इस शब्द के संस्कृत रूप दो तरह के बनते हैं-(१) खेदज्ञ और (२) क्षेत्रज्ञ । खेद शब्द के भी दो अर्थ होते हैं-(१) अभ्यास और (२) श्रम । प्रथम अर्थ से यह तात्पर्य है कि साधु सतत अभ्यास और अनुभव के द्वारा सब बातों को जानने वाला हो । श्रम अर्थ से वह मतलब है कि साधु संसार-चक्र में भटकने से जो श्रम पड़ता है उसको जानने वाला हो । जैसा कि: जरामरणदौर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धीरस्य भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥ अर्थात-बुढ़ापा, मृत्यु, दुर्गति और व्याधियों की बात तो दूर रही परन्तु बारबार जन्म धारण करना यह भी धीरों के लिए लज्जास्पद है। आशय यह है कि साधु संसार में परिभ्रमण के दुख को जानने घाला हो । क्षेत्रज्ञ ऐसा संस्कृत रूप बनाने पर यह अर्थ घटित होता है कि साधु को भिन्न २ क्षेत्रों का अनुभव होना चाहिए। यह क्षेत्र किस प्रकार का है ? यहाँजाने से राग-द्वेष तो नहीं पैदा होगा? इस क्षेत्र में कैसे द्रव्यों का उपयोग करना चाहिए ? भिक्षावृत्ति के लिए कौनसा क्षेत्र या कुल योग्य है ? इत्यादि रूप से भिन्न २ क्षेत्रों का अनुभव भी अनगार के लिए आवश्यक है । क्षणक्षः-साधु को अवसर का ज्ञाता होना चाहिए । इस समय अमुक काम करने का अवसर है कि नहीं यह जानना चाहिए । भिक्षा के लिए जाने का कौनसा उपयोगी अवसर है ? इसका अवश्य ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि अगर यह ज्ञान न हो तो समय के पूर्व या पश्चात् जाने से आहारादि की प्राप्ति न हो तो चित्त में ग्लानि और असमाधि उत्पन्न हो सकती है अतएव अवसर को पहचानकर कालानुसार क्रिया करनी चाहिए। “काले कालं समायरे” अर्थात् नियत समय पर और योग्य अवसर पर किया हुश्रा कार्य सुखावह होता है अतः अवसर को पहचानने की कला अवश्य होनी चाहिए। विनयज्ञः-ज्ञान, दर्शन और चारित्र को विनय कहते हैं । इस प्रकार के विनय के स्वरूप के जानने वाला होना चाहिए । ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वरूप को समझ कर उनकी सम्यग आराधना करने वाला विनयज्ञ कहलाता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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