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[ आचाराङ्ग-सूत्रम् बानकर । कुसलस्स-बुद्धिमान् को । अलं पमाएण अमाद नहीं करना चाहिए। पास हे शिष्य ! तू देख कि । नालं-ये भोग तृप्ति के लिए नहीं हैं। ते एएहिं अलं-तुझे इनमें आसक्ति नहीं करनी चाहिए । मुणी हे मुने ! एवं महब्मयं भोगों को महाभयरूप । पस्स-समझो।
भावार्थ-भोगों में आसक्त हुआ प्राणी विविध योनियों में परिभ्रमण करता हुआ दुखों को सहन करता है तो भी वह मूढ बना हुआ धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता है । श्री वर्धमान स्वामी ने दृढता पूर्वक यह फरमाया है कि कञ्चन और कामिनी महामोह के निमित्त हैं इसलिए इनमें प्रमाद नहीं करना चाहिए । अप्रमाद से मोक्ष और प्रमाद से मरण होता है यह विचार कर तथा शरीर की क्षणभंगुरता का ध्यान रखकर बुद्धिमान् को प्रमाद नहीं करना चाहिए । हे शिष्य ! तू यह.देख कि भोगों से कदापि तृप्ति नहीं हो सकती अतः तुझे इन भोगों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए । हे मुने ! तुम यह समझो कि ये भोग महाभयरूप हैं।
विवेचन-प्रकृत सूत्र में सूत्रकार यह निर्देश करते हैं कि प्राणी भोगों के फलस्वरूप नरक तिर्यंचादि गतियों में अनेक प्रकार के दुःख उठाता है तो भी वह धर्म के सच्चे स्वरूप को नहीं समझता है। नरक तिर्यंचादि गतियों में वह भोगों के अशुभ फलों का अनुभव करता है तदपि वह नहीं जानता कि मुझे इस दुर्दशा में गिराने वाले भोग ही हैं । वह इस बात को महसूस नहीं करता कि इन सभी प्राप्त दुखों का मूलकारण भोगों में रहा हुआ है । वह उस दुखी अवस्था में भी अपनी मूढ़ता के कारण इन्द्रियों के विषय-भोगों को पाने के लिए लालायित रहता है । यही मोह की विचित्रता है। मोह से मोह की परम्परा बढ़ती है अतएव मोह से मूढ बना हुआ प्राणी धर्म के स्वरूप को समझने में असमर्थ होता है । जब मूढ़ता दूर होती है तभी धर्म का स्वरूप जाना जा सकता है । अतःसूत्रकार ने यह फरमाया है कि विविध दुखों को सहन करने पर भी मूढ़ प्राणी धर्म को नहीं जान सकता है।
इसीलिए अनन्त ज्ञानी तीर्थक्कर श्री वर्धमान स्वामी ने यह दृढ़ता पूर्वक फरमाया है कि कंचन और कामिनी (परिग्रह और अब्रह्म ) महामोह के मूल निमित्तभूत हैं अतः बुद्धिमानों को चाहिए कि वे इन निमित्तों में असावधान होकर प्रमादी न बनें । कंचन और कामिनी महामोह के कारण हैं इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इन्हें ही "महामोह" कह दिया है । इस महामोह से अल्पमात्र भी असावधान नहीं रहना चाहिए । इनमें की हुई जरासी असावधानी बड़े-बड़े अनर्थों व दुखों की जननी बन जाती है । अतः इनमें अत्यन्त सावधानी रखनी चाहिए । दुखों से छूटने का एकमात्र उपाय अप्रमाद है और संसार में परिभ्रमण कराने का मूल कारण प्रमाद है।
जिससे जीव बेभान हो जाता है, हिताहित के विचार से शन्य बन जाता है तथा आत्म-स्वरूपज्ञान दर्शन और चारित्र में शिथिल हो जाता है उसे प्रमादकहते हैं। प्रमाद के पाँच भेद बताये गये हैं:(१) मद्य (२) विषय (३) कषाय (४) निद्रा और (५) विकथा । कहा भी है:
मजं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एएपंच पमाया जीवं पाति संसारे ॥
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