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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२४ ] [अाचाराग-सूत्रम् भी विचार नहीं होता है । वह प्राणी इस सौदामिनी (विजली) की दमक से भी अति चंचल चपला लक्ष्मी की अनित्यता और असारता का ध्यान ही नहीं करता है। उसे इस बात की भी चिन्ता नहीं रहती है कि वह कैसे उपायों द्वारा धन संग्रह कर रहा है ? जिन उपायों और साधनों से द्रव्योपार्जन करता है वे साधन नीतियुक्त और धर्मविहित हैं या अन्याय से दूषित हैं, इसकी भी उसे चिन्ता नहीं रहती। जैसे-तैसे किन्हीं उपायों से द्रव्योपार्जन करना यही मात्र उद्देश्य रहता है और इस प्रकार से जो भी अल्प अथवा बहुत मात्रा में द्रव्य एकत्रित हो जाता है तो मनसा वाचा कर्मणा उसमें अत्यन्त आसक्त हो जाता है और इस अनित्य वस्तु को टिकाए रखने के लिए भरसक प्रयत्न करता है । तदपि सदा सशंकित रहता है । --कहा है कृमिकुलचित्तं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं । निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषं ॥ सुरपतिमपि वा पार्श्वस्थं सशंकितमीक्षते । न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रह फल्गुताम् ॥ छोटे छोटे कीड़ों के समूह से व्याप्त, लार से भरा हुआ, दुर्गन्धवाला, घृणास्पद और मांस रहित हड्डी का टुकड़ा मुँह में चबाता हुआ कुत्ता अद्भुत थानन्द का अनुभव करता है और अपने पास में खड़े हुए इन्द्र को भी सशंकित दृष्टि से देखता है कि कहीं मेरा हाड़का यह इन्द्र न ले ले। इसी तरह श्वान के समान तुच्छ प्रकृति वाले मनुष्य अपने परिग्रह की असारता को नहीं समझते हैं और दूसरों को सदा शंकाशील दृष्टि से देखते हैं अतः स्वयं शंकित बने रहकर वास्तविक तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकते हैं । तो से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ । तंपि से एगया दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरन्ति, रायाणो वा से विलुंपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ । . संस्कृतच्छाया-ततस्तस्यैकदा विविधं परिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति । तदपि तस्यैकदा दायादा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य विनश्यति वा तस्य अगारदाहेन वा दह्यते । - शब्दार्थ-तो इसके बाद । से उसके पास। एगया=किसी समय। विविहं=विविध प्रकार का । परिसिटुं–भोगने के बाद बचा हुआ। संभूयं प्रचुर मात्रा में। महोवगरणं भवइ= द्रव्य एकत्रित हो जाता है । तंपि-उसको भी। एगया=किसी समय । दायादा-सम्बन्धी जन । विभजंति चाँद लेते हैं। अदत्तहारो वा अथवा चौर । से अवहरन्ति उसे चुरा लेता है । रायाणो से विलुम्पंति अथवा राजा छीन लेते हैं । णस्सति वा से व्यापारादि में नष्ट हो जाता है। विणस्सति वा से अन्य द्वारों से नष्ट हो जाता है। अगारदाहेण से डझइ-घर में आग लगने से वह नष्ट हो जाता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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