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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ श्राचारान-सूत्रम् ८२ ] तिर्यग और अनियमित गति वाली है जैसे- गाय, अश्व आदि । अनियमित विशेषण देने से परमाणु में होने वाली नैकान्तिकता का असंभव है क्योंकि परमाणु और जीव की गति सरल ही है " अनुश्रेणि गतिः” इति वचनात् । उपर के प्रमाण से वायु सचेतन है अतः उसकी यतना में उपयुक्त होना चाहिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चैव जीवियस्स, परिवंदणमा गणपूयणाए. जाइमर मोयणाए, दुक्खपडिघा यहेडं, से सयमेव वाउसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वाउसत्यं समारंभावे, अरणे वा वाउसत्थं समारंभंते समजा तं से हियाए, तं से अबोहिए (५८) संस्कृतच्छाया— तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैत्र जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं सः स्वयमेव वायुशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा वायुशस्त्र समारम्भयति, अन्यान्वा वायुशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीते तत्तस्याहिताय, तत्तस्या बोधिलाभाय । भावार्थ - भगवान् ने वायुकाय के विषय में परिज्ञा फरमायी है कि इस जीवन के निर्वाह के लिए, प्रशंसा, मान और पूजा के लिए, जन्म और मरण से छूटने के लिए, दुःखों का निवारण करने के लिए प्राणी स्वयं वायुकाय की हिंसा करता है, अन्य से कराता है और करते हुए अन्य को अच्छा सम झता है परन्तु इस हिंसा से उसका अहित और अज्ञान ही बढ़ने वाला है । से तं संबुज्झमाणे श्रायाणिीयं समुट्ठाय, सोच्चा भगवत्र अणगाराणं वातिए इहमेगेसिं पायं भवति - एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु रिए । इचत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं वायुकम्मसमारंभेणं, वाउसत्थं समारभमाणे रणे गरूवे पाणे विहिंस (५६) संस्कृतच्छाया - स तद् सम्बुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वान्तिके इषज्ञतं भवति । एष खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः । इत्येवमर्थं गृद्धो लोकः यदिदं विरूपरूपैः शनैः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति । • For Private And Personal भावार्थ - हिंसाको हितकर्त्री समझकर, सर्वज्ञ अथवा श्रमणों से सुनकर और ग्राह्य सम्यग् - ज्ञानादि ग्रहण करने से किसी-किसी प्रारणी को यह ज्ञान होता है कि यह हिंसा आठ कर्मों की गांठ है, मोहका कारण है, मरण का हेतु है और नरक में ले जाने वाली है। तो भी खानपान और कीर्ति के लोभ से लुब्ध होकर प्राणी वायुकाय के विविध शस्त्रों द्वारा वायुकाय की हिंसा करते हैं और अन्य प्राणियों 'की भी घात करते हैं ।
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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