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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन षष्ठ उद्देशकः ] [E मिजी के लिए भैंसा, वराह को, प्रयोजन से, कोई बिना प्रयोजन केवल मनोविनोद के लिए त्रस प्राणियों को मारते हैं । इसने मेरे स्वजनों को मारा था इसलिये भी कोई मारते हैं, यह मुझे मारता है इस संकल्प से अथवा यह मुझे मारेगा इस भाव से भी जीवों की हिंसा की जाती है। विवेचन-'अञ्चाए' पद का विशेष स्पष्टीकरण आवश्यक होने से यहाँ किया जाता है-'अश्चाए' का एक अर्थ तो उपर किया गया है कि देवी-देवताओं को भोग देने के निमित्त भी वध किया जाता है। दूसरा अर्थ अच्चा अर्थात्-देह । इस देह के लिए भी हिंसा की जाती है जैसे लक्षण सम्पन्न, सकल अंग सम्पूर्ण व्यक्ति को मारकर उसके शरीर से विद्या और मंत्र का साधन करते हैं अथवा अन्धविश्वासी दुर्गादि देवी के मांगने पर बलि देते हैं । अथवा जिसने विष खा लिया हो उसका विष निवारण करने के लिए हाथी को मारकर उसके शरीर में विष खाने वाले को रखा जाता है जिससे विष हजम हो जाता है, इसके लिए भी हाथी की हिंसा की जाती है। अन्ध श्रद्धा और अज्ञान क्या २ भीषण पाप नहीं कराते है ! वस्तुतः अपने अन्ध विश्वास के लिए या क्षुद्र स्वार्थों के लिए पंचेन्द्रिय समान प्राणियों के मूल्यवान जीवन की कीमत नहीं समझकर उन्हें मार देना कितनी निष्ठुरता और अज्ञान की पराकाष्ठा है। एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्छेते प्रारम्भा अपरिणाया भवंति । एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा परिणाया भवंति (५४) संस्कृतच्छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाताः भवन्ति, अत्र शत्रमसमारभमाणस्य इत्येते प्रारम्भाः परिक्षाताः भवन्ति । भावार्थ-जो त्रसकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह हिंसा के अशुभ फलों को नहीं जानता है जो त्रसकाय की हिंसा में प्रवृत्ति नहीं करता है वह आरम्भ के फल को जानता है। तं परिणाय मेहावी व सयं तसकायसत्यं समारंभेजा वगणेहि तसकायसत्थं समारंभावेजा, णेवगणे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते तसकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ति बेमि (५५) .... - संस्कृतच्छाया-तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः त्रसकायशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् त्रसकायशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् । यम्यैते त्रसकायशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति बवीमि । ... भावार्थ--उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि बुद्धिमान् उपर्युक्त अहिंसातत्व को समझकर स्वयं त्रसक.य की हिंसा न करे, अन्य से न करावे, करते हुए अन्य को अच्छा न समझे । जिसने त्रसकाय के प्रारम्भ के अशुभ फल को जानकर उसका त्याग कर दिया है वही परिज्ञा (विवेक) सम्पन्न मुनि है । हे जम्बू ! भगवान् से श्रवण कर मैंने तुझे यह कहा है । इति षष्ठ उद्देशकः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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