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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ विकृतिविज्ञान आमाशयिक अम्लाभाव (gastric anacidity ) मुख्यतया पाई जाती है । इसका रक्तचित्र घातक रक्तक्षय के रक्तचित्र के समान ही होता है । माधवकर ने संग्रहग्रहणी के जो लक्षण दिये हैं वे स्प्रू से बहुत कुछ मिलते हैं अन्त्रकूजनमालस्यं दौर्बल्यं सदनं तथा । द्रवं शीतं घनं स्निग्धं सकटीवेदनं शकृत् ॥ आमं बहु सपच्छिल्यं सशब्दं मन्दवेदनम् । पक्षान्मासाद्दशाहाद्वा नित्यं वाप्यथ मुञ्चति ॥ दिवा प्रकोपो भवति रात्रौ शान्ति व्रजेच्च या । दुर्विज्ञेया दुश्चिकित्स्या चिरकालानुबन्धिनी ॥ सा भवेदामवातेन संग्रहग्रहणीमता ॥ ग्रहणी जन्य रक्तक्षय के सम्बन्ध में हर्बर्ट फ्रेञ्च का मत है - Thus with gastric carcinoma after gastro-intestinal operations, and in sprue and allied diseases the anaemia is most often of post haemorrhagic or iron-deficiency type with low colour index but occasionally it is typical of a deficiency of the haemopoitic principle with a high colour index and large cells and sometimes it presents a picture which is a mixture of the two the colour index being low but the cell diamater increased. कि आमाशयिक कर्कट में आमाशयान्त्रिक शस्त्रकर्मोपरान्त तथा ग्रहणी और अन्य सम्बन्धित रोगों में रक्तक्षय का स्वरूप बहुधा रक्तस्रावोत्तरकालीन या अयसाभावी रहता है जिसमें रंगदेशना १ से नीचे पाई जाती है । पर प्रायः रक्तक्षय का चित्र रक्तोत्पत्तिकर तत्व के अभाव से होने वाले रक्तक्षय के समान देखा जाता है। जिसमें रंगदेशना १ से ऊपर हो और बृहद्रक्तकोशा प्रचुरता से पाये जाते हैं । कभी कभी इन दोनों प्रकारों का मिश्ररूप भी देखने में आता है जब रंगदेशना ५ से कम तथा रुधिराणु का आकार बृहद् मिलता है । यद्यपि दोनों प्रकार के रक्तक्षय स्पू में मिलते हैं पर हमें यहाँ परमवर्णिक बृहस्कायाण्विक रक्तक्षय की दृष्टि से प्रमुखतया विचार करना है । जब यह रक्तक्षय यहाँ मिलता है तो उसका रक्तचित्र तथा घातक रक्तक्षयजन्य रक्तचित्र करीब करीब एक सा होता है दोनों में अन्तर करना बहुत कठिन पड़ता है । रक्तक्षय बृहत्कायाण्विक ( macrocytic ) होता है तथा अस्थिमज्ज की प्रतिक्रिया बृहद्रक्तरुहीय ( megaloblastic ) होती है । ग्रहणी या संग्रहग्रहणी में अन्त्र की श्लेष्मलकला पतली पड़ती जाती है तथा अपुष्ट होने लगती है और यह अपुष्टि बराबर बढ़ती चली जाती है यहाँ तक कि अन् का अधिच्छद बिलकुल नष्ट हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप रक्तोत्पत्तिकर तस्व के प्रदूषण का कार्य जो मुख्य है इतना घट जाता है कि इस तत्व का एक चिरकालीन अभाव अनुभव में आने लगता है इसका परिणाम अस्थिमज्जा पर वही होता है जो घातक या मारात्मक रक्तक्षय में देखा जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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